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दीवार

हमारे तुम्हारे बीच कोई दीवार बनी नहीं थी | खिड़कियां थी, शीशे की खुलती बंद होती लापरवाह दोस्त की तरह | फिर एक दिन अचानक डूबती शाम के इस पार खड़े थे हम और उस पार तुम - दीवार बना दी हमने | दीवार खड़ी हो गयी, लेकिन हम जीते रहे उसी दौर में जब कोई दीवार थी ही नहीं - फिर रोज़ रोज़ की बहस में दीवार बिखड़ कर गिर गयी | दीवार बिखड़ कर गिर गयी लेकिन हम जीते रहे उस दौर में जब एक दीवार खड़ी थी हमारे तुम्हारे दरमियान | फिर रोज़ रोज़ की ख़ामोशी रोज़ रोज़ के सन्नाटे रोज़ रोज़ की बहस की आग में तप रही जमीं की मिट्टी सुर्ख लाल हो गयी है - ईंटें तैयार हैं नयी दीवार उठाने को | बनते बिगड़ते दीवारों सी रह गयी है जिंदगी | काश बस खिड़कियां होती, शीशे की खुलती बंद होती लापरवाह दोस्त की तरह | 

कविता का आखिरी पूर्ण विराम

किसी का पिता होना एक  जिम्मेदारी का होना है |  किसी का पुत्र होना  एक आबरू का होना है |  किसी का आशिक होना  मुहब्बत के ख़ुशनुमा लम्हों का होना है |  लेकिन किसी का चेतना हो जाना  उसके अस्तित्व का होना है |  तुम मेरी चेतना हो  ये भी एक रिश्ता है |  समाजशास्त्रियों के टाइपराइटर में अंकित हुआ नहीं  लेकिन है, सत्य है, शाश्वत है  उतना ही शाश्वत  जितना  की जीवन, प्रकृति और बसंत |  तुम मेरी चेतना हो  तुम्हारे छावं तले  चलता है  मेरा लफ्ज़ - मेरा सच और झूठ |  तुम्हारी स्याही से लिखी जाती है  निरीह उदास दौर में धुप्प अँधेरे जैसा नज़्म  ख़ुशनुमा हंसी के लम्हों में सवेरे जैसी कविता |  तुम मेरी चेतना हो  और इसीलिए  तुम्हारे सामने  मेरी मुस्कराहट - मुस्कराहट है  मेरा रुदन -रुदन है  मेरा होना - काया  से परे  एक बेमांस  सत्य का होना है |  तुम मेरी चेतना हो  और इसीलिए  तुम ह...

मौत कोई कविता नहीं है |

पिछले एक महीने में आई आई टी  खड़गपुर से दो छात्रों के सुसाइड की खबर, खबर से कहीं  ज्यादा उस एक सत्य की तलाश भी है जिसे हम आपने अर्सों से झुठला रखा है | लेकिन हर बार घूम फिर के सारा दोष संस्थान पे फेक देना भी उतना ठीक नहीं है | कभी कभी ये भी जरुरी है की हम अपना आत्मविश्लेषण करें - आखिर क्या कमी रह गयी जो हम एक लम्हे भर के आक्रोश को रोक नहीं पाए | एक छात्र का निर्माण घर से शुरू होता है, कॉलोनी वाले , आस पड़ोस वाले उसके इंस्पिरेशन बनते हैं और कहीं न कहीं सफलता की परिभाषा भी उसी दौड़ में गढ़ी जाती है | स्कूल आपका स्तम्भ है, कॉलेज उसपे पताका बांधता है | ऐसे में हर बात पे आई आई टी को सारा दोष देना भी तो ठीक नहीं | एक छात्र की हार में जितना जिम्मेदार कॉलेज है उतना ही उसका पिता भी, उसका परिवार भी, उसका समाज भी, उसका स्कूल भी | क्योंकि इनसब ने मिलकर तय किया था सफल होना , बुलंदियों को छूना, और जीतना का एक फ़र्ज़ी डेफिनिशन | मौत कोई कविता नहीं है |  वो इस सदी का सबसे बेवक़ूफ़ शायर है जिसने कह रखा है "मौत तू एक कविता है |" मौत कोई कविता नहीं है कविता है - मौत के खिलाफ विद्रोह | वो...

शूल

जब तुम मेरे पास होते हो तुम मेरे पास नहीं होते | तुम मेरे पास तभी होते हो जब तुम मेरे पास नहीं होते | तुम्हारा होना, मेरे इस सफ़ेद दीवार से चेहरे पे बस एक मुस्कराहट का होना है | लेकिन तुम्हारा ना होना एक शूल की तरह चुभता है मेरे सीने जेहन में लम्हा लम्हा घड़ी घड़ी | मैं बन गया हूँ एक उदासीन निर्मम जमीं जो एहसास करता है अपने बदन के खुश्बू की रौनक तुम्हारे आसमान के आंसू में भींग कर | कहीं ऐसा तो नहीं ?

खोज

जब भी कोई लड़की हाथ में कार्डबोर्ड लिए उतरती है सड़क पे और हो जाती है किसी कैमरे में कैद, ठीक उसी वक़्त निकल पड़ते हैं सड़कों पे अलग अलग ठीकेदारों के अलग अलग नुमाइंदे | इस खोज में की कहीं उसका कोई इतिहास तो नहीं कहीं यूट्यूब पे कोई डांस तो नहीं कहीं पुराना कोई रोमांस तो नहीं कहीं उसका  आर एस एस  में होने का कोई चांस तो नहीं | इस खोज में की देखो उसके पुराने गैलरी में किसी ने भगवा दुपट्टा बाँध रखा है क्या ? वो सफ़ेद टोपी वाला उसका सखा है क्या ? इस खोज में की उसने गोधरा पे कुछ कहा था क्या ? उसने चौरासी पे कुछ लिखा था क्या ? इससे पहले कभी उसका चेहरा यूँ ही कभी बिक था क्या ? इस खोज में की कोई फोटोशॉप की गुंजाईश तो नहीं किसी पुराने कैमरे में कैद इसकी कोई फरमाइश तो नहीं, पहले कभी इसने कोई "आजादी" वाले गाने गाये क्या ? वो कार में डांस करने वाली का यूट्यूब लिंक इसके नाम पे बेचा जाए क्या ? और इसी खोज के इर्द गिर्द एक तैयार लाश से लोथड़े खींच रहे हैं हम, आप, मीडिया और बाजार और इसी खोज से बन रही है बिगड़ रही है हमारी आपकी सरकार | अगर कविता समझ में ना आय...

पता ही ना चला |

मैं चाहता था मैं बनूँ सामानांतर सी  रेखा, साथ साथ चलती पटरी  | मैं कब गुजर बैठ तुमसे तुम कब गुजर बैठी हमसे और फिर निकल गए बड़ी दूर, पारस्परिक रेखाओं की तरह पता ही ना चला | मैं चाहता था मैं बनूँ एक हसीन ख्वाब; तुम्हारे उधड़े दिनों में काम आये जिनकी यादें | मैं कब बन गया आधी रात का वो एक स्वप्न और निगल बैठ तुम्हारी नींद पता ही न चला | मैं चाहता था मैं बनूँ हवा का झोंका जो उड़ाए तुम्हारी जुल्फों को बेपनाह जिसके ठीक पीछे नज़र आये स्याह रात में चमकते आकांक्षाओं के साइनबोर्ड | मैं कब बन गया तूफ़ान और झकझोर बैठा तुम्हारी छाती रौंद दिए अपने पैरों के तले तुम्हारे आँसू पता ही ना चला |

आधी रात का स्वप्न |

इस गली में, जिसमें मेरा रोज़ का आना जाना है, कुल मिला के सात चाय की दुकानें हैं | कहीं ४ रुपये की चाय है, कहीं ५ की, कहीं ६ और कहीं ७ की | ऐसा भी नहीं है की ५ रुपये वाली चाय, ४ वाली से अच्छी है या फिर बड़ी | ऐसा भी नहीं है की ६ रुपये वाली चाय ५ वाली से अच्छी है या फिर बड़ी | यहाँ की चाय बस चाय है, सस्ती चायपत्ती और टी-स्पेशल वाला दूध का पैकेट | चूल्हे में थोड़ा बहुत फर्क है, वो किनारे वाली अम्मा कोयला और गोयठा जलाती है, ये सामने वाला स्टोव जलाता है, जो सबसे व्यस्त दूकान है वहां सबकुछ गैस-चूल्हे पे होता है | लेकिन हर एक दूकान पे चाय पीने वाले हैं | शायद ये लोग इस बात से वाकिफ हैं की चाय कीमत पे नहीं बिकती है, आदत पे बिकती है | जो जहाँ जाता है वहीँ जाएगा, क्योंकि चाय से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, चाय पे चर्चा, वो चार लोग जो एक वक़्त और ठिकाने पे हर रोज़ मिलते हैं  | चाय की इस दुकानदारी में आर्बिट्राज का कोई मतलब नहीं रहता | ऐसे ही एक चाय की दूकान पे आज मैंने ये एक कविता लिखी जिसका चाय से कोई लेना देना नहीं | सुबह होने से बहुत पहले आधी रात के स्वप्न में मैंने तुम्हारे दरवाजे...