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Showing posts from November, 2014

रिस्क लेने में क्या जाता है !

तमाम हैरत से तकते है  वो सब के सब  उसके साथी  जो उसके इर्द -गिर्द घूमते है | सवाल करते है  "ये कैसी आदत है तुम्हारी ; ये किस अफ़साने में जी रही हो ? ये कैसा इश्क़ है तुम्हारा ; क्षितिज को चूमने की तमन्ना ?  तुम्हें पता है , मुझे पता है  उसके लम्हों के चहल पहल में  कहीं तुम्हारा जिक्र नहीं है | " " ये कैसी जुर्रत है तुम्हारी ; ये किस अफ़साने में जी रही हो ? फरमेट के कारिंदे को  कीट्स के लफ्ज़ समझा रही हो ? कच्चे याददाश्त के उस शायर से  शबनम की उम्मीद करती हो ? तुम्हें पता है , मुझे पता है  वो जो शख्स है , उस शख्सियत को ओढ़ने वाले  इश्क़ नहीं किया करते हैं | " " देख लियो  तू डूबेगी एक दिन | कोई उस जैसी ही मामूल शहजादी  तेरे कारिंदे को उठा ले जायेगी |"  .......................................................... और सब के चुप हो जाने के बाद  बड़े ही खुश्क और दबे हर्फ़ में  वो लड़की  बस इतना कह पाती  "  रिस्क लेने में क्या जाता है ! "

ये कमरा कब खुलेगा ?

आखिरी मार्च में   जब मेरे कमरे के सामने का गुलमोहर खिलता है  परिंदों का एक सैलाब गुजरता है | कभी कभी कुछ एक  परिंदे  कमरे में आ जाते  दीवार दर दीवार टकराते रहते ; एक टक आईने को देखते रहते और खुद  को समझते  की उन्हें भी कोई समझ रहा है | दिन ब दिन मचलते रहते  एक आजाद रविश की तलाश में | ये कमरा कब खुलेगा ? कब कोई आवारा झोंका  सलाखों को तिरछा कर जाएगा ? खुशबू औ उम्मीद पर और कब तक जीना पड़ेगा ? इस कसमकश में इतना तो एहसास होता है  कोई कमरा मुझे भी बाँध रखा है | फर्क इतना है  मुझे मालूम नहीं  वो कमरा कितनी दूर तक फैला है ? उसकी सलाखों में कितना जोर है ?  मेरी खुसबू औ उम्मीद क्या है ? 

अच्छा नहीं लगता , यूँ अचानक से बड़ा हो जाना

अच्छा नहीं लगता  सादे कच्चे रंग से लिपे पुते ये सारे दरो दीवारें ; गुमनाम सा बंद कमरा ; और दो चार पन्नों में सिमटी जिंदगी | अच्छी नहीं लगती  ये बदहवास खामोशियाँ ; उनकी अजिमोशान चुप्पी  जिनकी सोहबत में काट दी हमने सारे ऑर्थो डॉक्स धागे | अच्छा नहीं लगता  उनका नज़रों के किनारे से बस यूँ ही निकल जाना  जिनके रोजमर्रा पे लिख दी  हमने दो चार किताबें | अच्छा नहीं लगता  यूँ अचानक से बड़ा हो जाना  जो हमारी किलकारियों पे अब कोई लाकर नहीं देता खिलौना ||

Recreating "NEERA"

नीरा कभी कभी तुम क्षितिज सी लगती हो | दूर कहीं आसमां से उतर कर जमीं को चूमती ; दूर कहीं सर्द वादियों  में खामोश दौड़ती || इस कभी कभी के दौड़ में , नीरा जब भी वक़्त मिलता है मेरी आँखें आसमां टटोलती हैं; और जब जब तारे टूटते हैं , हर एक टूटे तारों के पीछे पीछे दौड़ता हूँ | इस कभी कभी के दौड़ में , नीरा जेहन में एक क्रांति उठती हैं हर उस लम्हे से लड़ जाऊँ जिसका अंत निश्चित हैं ; जिसके सत्य पे कोई शक नहीं | हर उस लम्हे से लड़ जाऊँ जो कुछ कुछ तुम जैसा हैं || इस कभी कभी के दौड़ में , नीरा इतनी सी ख्वाईश लेकर जीता हूँ : जन्नत के चिराग को तेरी हथेलियों पे रख जाऊँ ; और उस रौशनी को चूमता रहूँ जो तेरी जुबाँ को रंगते जा रहे हैं || Acclaimed for his novel Sei somay (those days) , Sunil Gangopadhyay remains the heart and soul of bengali literal history .However very less has been talked about the poetry of this sahitya  academy award winning bengali maestro . The character Neera derives its inspiration from his work Ephemeral.