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Showing posts from 2017

दिन आखिर ढलता ही नहीं है

दिन ढलता ही नहीं है जम गया है सीने में रक्त थक्के की तरह सुबह की आंच में उबलता ही नहीं है चिमनी के कोयले में जलता ही नहीं है  दिन आखिर ढलता ही नहीं है | गर ये बन गया है पाप की ईमारत प्रायश्चित की लेप कहाँ से लाऊँ ? गर ये बन गया है प्रतिद्रोह की ज्वाला शांति का मेघ कहाँ से लाऊँ ? उठ बैठता गर ये होता स्वप्न अटल सत्य कैसे झूठलाऊँ ? मैं स्वयं जल रहा हूँ रुधिर के ताप में मैं स्वयं हूँ शोषित स्वयं के आलाप में किसको बतलाऊँ, किसको समझाऊँ ? दिन आखिर ढलता ही नहीं है रात्रि के आँगन में कैसे जाऊँ ?

अब यूँ ही मुझे ले चल ए जिंदगी |

अब यूँ ही मुझे ले चल ए जिंदगी  | ख्वाबों में कहीं खे चल ए  जिंदगी || मेरे हसीन लम्हों को एक कमरा किराये दे इससे पहले की हो जाएँ ओझल ए जिंदगी || ख्याल आया कितनी खूब है चिता सी मौत जो चिंता में घुटने लगी पल पल ए जिंदगी || डूब रही है कहीं सूरज की आखिरी किरण हो सके तो इस पहर से निकल ए जिंदगी || 

दीवार

हमारे तुम्हारे बीच कोई दीवार बनी नहीं थी | खिड़कियां थी, शीशे की खुलती बंद होती लापरवाह दोस्त की तरह | फिर एक दिन अचानक डूबती शाम के इस पार खड़े थे हम और उस पार तुम - दीवार बना दी हमने | दीवार खड़ी हो गयी, लेकिन हम जीते रहे उसी दौर में जब कोई दीवार थी ही नहीं - फिर रोज़ रोज़ की बहस में दीवार बिखड़ कर गिर गयी | दीवार बिखड़ कर गिर गयी लेकिन हम जीते रहे उस दौर में जब एक दीवार खड़ी थी हमारे तुम्हारे दरमियान | फिर रोज़ रोज़ की ख़ामोशी रोज़ रोज़ के सन्नाटे रोज़ रोज़ की बहस की आग में तप रही जमीं की मिट्टी सुर्ख लाल हो गयी है - ईंटें तैयार हैं नयी दीवार उठाने को | बनते बिगड़ते दीवारों सी रह गयी है जिंदगी | काश बस खिड़कियां होती, शीशे की खुलती बंद होती लापरवाह दोस्त की तरह | 

कविता का आखिरी पूर्ण विराम

किसी का पिता होना एक  जिम्मेदारी का होना है |  किसी का पुत्र होना  एक आबरू का होना है |  किसी का आशिक होना  मुहब्बत के ख़ुशनुमा लम्हों का होना है |  लेकिन किसी का चेतना हो जाना  उसके अस्तित्व का होना है |  तुम मेरी चेतना हो  ये भी एक रिश्ता है |  समाजशास्त्रियों के टाइपराइटर में अंकित हुआ नहीं  लेकिन है, सत्य है, शाश्वत है  उतना ही शाश्वत  जितना  की जीवन, प्रकृति और बसंत |  तुम मेरी चेतना हो  तुम्हारे छावं तले  चलता है  मेरा लफ्ज़ - मेरा सच और झूठ |  तुम्हारी स्याही से लिखी जाती है  निरीह उदास दौर में धुप्प अँधेरे जैसा नज़्म  ख़ुशनुमा हंसी के लम्हों में सवेरे जैसी कविता |  तुम मेरी चेतना हो  और इसीलिए  तुम्हारे सामने  मेरी मुस्कराहट - मुस्कराहट है  मेरा रुदन -रुदन है  मेरा होना - काया  से परे  एक बेमांस  सत्य का होना है |  तुम मेरी चेतना हो  और इसीलिए  तुम हो मेरे सीने में जलती आग  तुम हो मेरे आँखों की तरलता  तुम हो मेरे चेहरे का लावण्य  और मेरे गेसू का रंग भी |  और ये है मेरी कविता का  आखिरी पूर्ण विराम  जहाँ

मौत कोई कविता नहीं है |

पिछले एक महीने में आई आई टी  खड़गपुर से दो छात्रों के सुसाइड की खबर, खबर से कहीं  ज्यादा उस एक सत्य की तलाश भी है जिसे हम आपने अर्सों से झुठला रखा है | लेकिन हर बार घूम फिर के सारा दोष संस्थान पे फेक देना भी उतना ठीक नहीं है | कभी कभी ये भी जरुरी है की हम अपना आत्मविश्लेषण करें - आखिर क्या कमी रह गयी जो हम एक लम्हे भर के आक्रोश को रोक नहीं पाए | एक छात्र का निर्माण घर से शुरू होता है, कॉलोनी वाले , आस पड़ोस वाले उसके इंस्पिरेशन बनते हैं और कहीं न कहीं सफलता की परिभाषा भी उसी दौड़ में गढ़ी जाती है | स्कूल आपका स्तम्भ है, कॉलेज उसपे पताका बांधता है | ऐसे में हर बात पे आई आई टी को सारा दोष देना भी तो ठीक नहीं | एक छात्र की हार में जितना जिम्मेदार कॉलेज है उतना ही उसका पिता भी, उसका परिवार भी, उसका समाज भी, उसका स्कूल भी | क्योंकि इनसब ने मिलकर तय किया था सफल होना , बुलंदियों को छूना, और जीतना का एक फ़र्ज़ी डेफिनिशन | मौत कोई कविता नहीं है |  वो इस सदी का सबसे बेवक़ूफ़ शायर है जिसने कह रखा है "मौत तू एक कविता है |" मौत कोई कविता नहीं है कविता है - मौत के खिलाफ विद्रोह | वो शाय

शूल

जब तुम मेरे पास होते हो तुम मेरे पास नहीं होते | तुम मेरे पास तभी होते हो जब तुम मेरे पास नहीं होते | तुम्हारा होना, मेरे इस सफ़ेद दीवार से चेहरे पे बस एक मुस्कराहट का होना है | लेकिन तुम्हारा ना होना एक शूल की तरह चुभता है मेरे सीने जेहन में लम्हा लम्हा घड़ी घड़ी | मैं बन गया हूँ एक उदासीन निर्मम जमीं जो एहसास करता है अपने बदन के खुश्बू की रौनक तुम्हारे आसमान के आंसू में भींग कर | कहीं ऐसा तो नहीं ?

खोज

जब भी कोई लड़की हाथ में कार्डबोर्ड लिए उतरती है सड़क पे और हो जाती है किसी कैमरे में कैद, ठीक उसी वक़्त निकल पड़ते हैं सड़कों पे अलग अलग ठीकेदारों के अलग अलग नुमाइंदे | इस खोज में की कहीं उसका कोई इतिहास तो नहीं कहीं यूट्यूब पे कोई डांस तो नहीं कहीं पुराना कोई रोमांस तो नहीं कहीं उसका  आर एस एस  में होने का कोई चांस तो नहीं | इस खोज में की देखो उसके पुराने गैलरी में किसी ने भगवा दुपट्टा बाँध रखा है क्या ? वो सफ़ेद टोपी वाला उसका सखा है क्या ? इस खोज में की उसने गोधरा पे कुछ कहा था क्या ? उसने चौरासी पे कुछ लिखा था क्या ? इससे पहले कभी उसका चेहरा यूँ ही कभी बिक था क्या ? इस खोज में की कोई फोटोशॉप की गुंजाईश तो नहीं किसी पुराने कैमरे में कैद इसकी कोई फरमाइश तो नहीं, पहले कभी इसने कोई "आजादी" वाले गाने गाये क्या ? वो कार में डांस करने वाली का यूट्यूब लिंक इसके नाम पे बेचा जाए क्या ? और इसी खोज के इर्द गिर्द एक तैयार लाश से लोथड़े खींच रहे हैं हम, आप, मीडिया और बाजार और इसी खोज से बन रही है बिगड़ रही है हमारी आपकी सरकार | अगर कविता समझ में ना आय

पता ही ना चला |

मैं चाहता था मैं बनूँ सामानांतर सी  रेखा, साथ साथ चलती पटरी  | मैं कब गुजर बैठ तुमसे तुम कब गुजर बैठी हमसे और फिर निकल गए बड़ी दूर, पारस्परिक रेखाओं की तरह पता ही ना चला | मैं चाहता था मैं बनूँ एक हसीन ख्वाब; तुम्हारे उधड़े दिनों में काम आये जिनकी यादें | मैं कब बन गया आधी रात का वो एक स्वप्न और निगल बैठ तुम्हारी नींद पता ही न चला | मैं चाहता था मैं बनूँ हवा का झोंका जो उड़ाए तुम्हारी जुल्फों को बेपनाह जिसके ठीक पीछे नज़र आये स्याह रात में चमकते आकांक्षाओं के साइनबोर्ड | मैं कब बन गया तूफ़ान और झकझोर बैठा तुम्हारी छाती रौंद दिए अपने पैरों के तले तुम्हारे आँसू पता ही ना चला |

आधी रात का स्वप्न |

इस गली में, जिसमें मेरा रोज़ का आना जाना है, कुल मिला के सात चाय की दुकानें हैं | कहीं ४ रुपये की चाय है, कहीं ५ की, कहीं ६ और कहीं ७ की | ऐसा भी नहीं है की ५ रुपये वाली चाय, ४ वाली से अच्छी है या फिर बड़ी | ऐसा भी नहीं है की ६ रुपये वाली चाय ५ वाली से अच्छी है या फिर बड़ी | यहाँ की चाय बस चाय है, सस्ती चायपत्ती और टी-स्पेशल वाला दूध का पैकेट | चूल्हे में थोड़ा बहुत फर्क है, वो किनारे वाली अम्मा कोयला और गोयठा जलाती है, ये सामने वाला स्टोव जलाता है, जो सबसे व्यस्त दूकान है वहां सबकुछ गैस-चूल्हे पे होता है | लेकिन हर एक दूकान पे चाय पीने वाले हैं | शायद ये लोग इस बात से वाकिफ हैं की चाय कीमत पे नहीं बिकती है, आदत पे बिकती है | जो जहाँ जाता है वहीँ जाएगा, क्योंकि चाय से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, चाय पे चर्चा, वो चार लोग जो एक वक़्त और ठिकाने पे हर रोज़ मिलते हैं  | चाय की इस दुकानदारी में आर्बिट्राज का कोई मतलब नहीं रहता | ऐसे ही एक चाय की दूकान पे आज मैंने ये एक कविता लिखी जिसका चाय से कोई लेना देना नहीं | सुबह होने से बहुत पहले आधी रात के स्वप्न में मैंने तुम्हारे दरवाजे पे दस्तक

एक नया संविधान

मैं खुदा हूँ और इंसान बनना चाहता हूँ | मैं चाहता हूँ की मैं करूँ वो सारी गलतियाँ जो इंसानों से अनायास हो जाते हैं | मैं चाहता हूँ तोड़ दूँ वो सारे बंधन वो सारी बेड़ियाँ जिसने मुझे प्रतिष्ठित किया है खुदाओं के आसमान में | मैं चाहता हूँ की डूब मरुँ तुम्हारी नज़रों में और उतरूँ जमीं पे | मैं खुदा हूँ और इंसान बनना चाहता हूँ जिसे रोक रखा है तुम और तुम्हारी धाराओं ने, जिसने मेरी नींद में तय कर दिया मेरा वजूद तुम जिसने ठहरा रखे हैं हर एक सख्स की आँखों पे पहरे तुम जिसने दरवाजों पे लगा रखी है कुंडियाँ; तुम जिसे डर लगता है कहीं ये दरवाजे टूट न जाए | मैं चाहता हूँ की मैं तोड़ दूँ ये सारी खौफ की कुंडियाँ और बाँध दूँ हर एक दरवाजे पे प्रेम के धागे | मैं चाहता हूँ की मैं जला दूँ ये सारे रिश्तों के  बने बनाये मापदंड और दर्ज करूँ रिश्तों के नाम एक नया संविधान: जिसके कुछ पन्ने सादे हों -बिलकुल खाली प्रेम के नाम समर्पित | लेकिन मैं कर नहीं सकता क्योंकि मैं खुदा हूँ, विद्रोह का हक़ मुझे नहीं है |

स्याही

1. धीमे हलके आंच पे एक औंधी कड़ाही रह गयी जिस्म सारा जल गया, हथेली की स्याही रह गयी || वो लूट कर ले गए तुम्हें, तुम्हारे नज़रे सितम और हमारे हिस्से में, बस वाह वाही रह गयी || जिस गली में लड़ी गयी इश्क़ की लड़ाइयाँ उस गली से अक्सरहां, मेरी आवा जाही रह गयी || कुछ इस तरह चलाते हैं वो अपनी हुकूमतें राजवाड़े मिट गए, पर राजशाही रह गयी ||  

A JUDGMENT WHERE BOTH PARTY LOST

In its one of the last 7 bench judgment under Justice T S Thakur regime, Supreme Court declared re-promulgation of ordinance as an act of fraud on constitution. Moreover court also observed that “the satisfaction of the president under Article 123 and the Governor under Article 213 is not immune from judicial review”. The context of order not only puts a question mark on the functioning of a government but also caters an element of confusion in thousands of teaching and non-teaching staffs of Sanskrit Schools of Bihar. Background Before the Kameshwar Singh Darbhanga Vishwa Vidyalaya Act, 1960 which dissolved Bihar Sanskrit association and acquired power to hold examinations for prathama and Madhyama(classX equivalent) standards, there was no legislation relating to Sanskrit education in the State of Bihar. The power of recognition of Sanskrit Schools up to Madhyama Standard was given to the Sanskrit Shiksha parishad ( The Board of Sanskrit Education) constituted under the Act.