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Showing posts from May, 2017

दीवार

हमारे तुम्हारे बीच कोई दीवार बनी नहीं थी | खिड़कियां थी, शीशे की खुलती बंद होती लापरवाह दोस्त की तरह | फिर एक दिन अचानक डूबती शाम के इस पार खड़े थे हम और उस पार तुम - दीवार बना दी हमने | दीवार खड़ी हो गयी, लेकिन हम जीते रहे उसी दौर में जब कोई दीवार थी ही नहीं - फिर रोज़ रोज़ की बहस में दीवार बिखड़ कर गिर गयी | दीवार बिखड़ कर गिर गयी लेकिन हम जीते रहे उस दौर में जब एक दीवार खड़ी थी हमारे तुम्हारे दरमियान | फिर रोज़ रोज़ की ख़ामोशी रोज़ रोज़ के सन्नाटे रोज़ रोज़ की बहस की आग में तप रही जमीं की मिट्टी सुर्ख लाल हो गयी है - ईंटें तैयार हैं नयी दीवार उठाने को | बनते बिगड़ते दीवारों सी रह गयी है जिंदगी | काश बस खिड़कियां होती, शीशे की खुलती बंद होती लापरवाह दोस्त की तरह | 

कविता का आखिरी पूर्ण विराम

किसी का पिता होना एक  जिम्मेदारी का होना है |  किसी का पुत्र होना  एक आबरू का होना है |  किसी का आशिक होना  मुहब्बत के ख़ुशनुमा लम्हों का होना है |  लेकिन किसी का चेतना हो जाना  उसके अस्तित्व का होना है |  तुम मेरी चेतना हो  ये भी एक रिश्ता है |  समाजशास्त्रियों के टाइपराइटर में अंकित हुआ नहीं  लेकिन है, सत्य है, शाश्वत है  उतना ही शाश्वत  जितना  की जीवन, प्रकृति और बसंत |  तुम मेरी चेतना हो  तुम्हारे छावं तले  चलता है  मेरा लफ्ज़ - मेरा सच और झूठ |  तुम्हारी स्याही से लिखी जाती है  निरीह उदास दौर में धुप्प अँधेरे जैसा नज़्म  ख़ुशनुमा हंसी के लम्हों में सवेरे जैसी कविता |  तुम मेरी चेतना हो  और इसीलिए  तुम्हारे सामने  मेरी मुस्कराहट - मुस्कराहट है  मेरा रुदन -रुदन है  मेरा होना - काया  से परे  एक बेमांस  सत्य का होना है |  तुम मेरी चेतना हो  और इसीलिए  तुम हो मेरे सीने में जलती आग  तुम हो मेरे आँखों की तरलता  तुम हो मेरे चेहरे का लावण्य  और मेरे गेसू का रंग भी |  और ये है मेरी कविता का  आखिरी पूर्ण विराम  जहाँ