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Showing posts from February, 2017

पता ही ना चला |

मैं चाहता था मैं बनूँ सामानांतर सी  रेखा, साथ साथ चलती पटरी  | मैं कब गुजर बैठ तुमसे तुम कब गुजर बैठी हमसे और फिर निकल गए बड़ी दूर, पारस्परिक रेखाओं की तरह पता ही ना चला | मैं चाहता था मैं बनूँ एक हसीन ख्वाब; तुम्हारे उधड़े दिनों में काम आये जिनकी यादें | मैं कब बन गया आधी रात का वो एक स्वप्न और निगल बैठ तुम्हारी नींद पता ही न चला | मैं चाहता था मैं बनूँ हवा का झोंका जो उड़ाए तुम्हारी जुल्फों को बेपनाह जिसके ठीक पीछे नज़र आये स्याह रात में चमकते आकांक्षाओं के साइनबोर्ड | मैं कब बन गया तूफ़ान और झकझोर बैठा तुम्हारी छाती रौंद दिए अपने पैरों के तले तुम्हारे आँसू पता ही ना चला |

आधी रात का स्वप्न |

इस गली में, जिसमें मेरा रोज़ का आना जाना है, कुल मिला के सात चाय की दुकानें हैं | कहीं ४ रुपये की चाय है, कहीं ५ की, कहीं ६ और कहीं ७ की | ऐसा भी नहीं है की ५ रुपये वाली चाय, ४ वाली से अच्छी है या फिर बड़ी | ऐसा भी नहीं है की ६ रुपये वाली चाय ५ वाली से अच्छी है या फिर बड़ी | यहाँ की चाय बस चाय है, सस्ती चायपत्ती और टी-स्पेशल वाला दूध का पैकेट | चूल्हे में थोड़ा बहुत फर्क है, वो किनारे वाली अम्मा कोयला और गोयठा जलाती है, ये सामने वाला स्टोव जलाता है, जो सबसे व्यस्त दूकान है वहां सबकुछ गैस-चूल्हे पे होता है | लेकिन हर एक दूकान पे चाय पीने वाले हैं | शायद ये लोग इस बात से वाकिफ हैं की चाय कीमत पे नहीं बिकती है, आदत पे बिकती है | जो जहाँ जाता है वहीँ जाएगा, क्योंकि चाय से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, चाय पे चर्चा, वो चार लोग जो एक वक़्त और ठिकाने पे हर रोज़ मिलते हैं  | चाय की इस दुकानदारी में आर्बिट्राज का कोई मतलब नहीं रहता | ऐसे ही एक चाय की दूकान पे आज मैंने ये एक कविता लिखी जिसका चाय से कोई लेना देना नहीं | सुबह होने से बहुत पहले आधी रात के स्वप्न में मैंने तुम्हारे दरवाजे पे दस्तक