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Showing posts from May, 2016

दो कवितायेँ : बुंदेलखंड और "अफज़ल हम शर्मिंदा हैं"

Image Source: REUTERS 1. बुंदेलखंड उसके पास सबकुछ था रोटी थी, खोपड़ी थी एक अच्छी खासी झोपड़ी थी मुट्ठे भर बीड़ी थी और सिलिंडर वाली सब्सिडी थी| उसके पास सबकुछ था घर था, जमीन था महिंद्रा वाला ट्रेक्टर था और थ्रेशर वाली मशीन थी | फिर जमीन प्यासी रहने लगी मशीन प्यासी रहने लगी प्यासा जमीन बिक गया प्यासी मशीन नीलाम  हो गयी | तब  जा के एक दिन उसके खोपड़ी में एक ख़याल आया | उसने गैस वाली सब्सिडी जला कर मुठ्ठी वाली बीड़ी सुलगायी फिर अपनी खोपड़ी जलायी और साथ में पूरी झोपड़ी जलायी | इतनी गर्मी में भी इत्ती सर्दी थी कि जब उसकी झोपड़ी जल रही थी सारा बुंदेलखंड ताप रहा था ; और अपना अपना कल नाप रहा था || 2. "अफ़ज़ल हम शर्मिंदा हैं" डर लगता है पटना के गाड़ियों को ओवरटेक करने में जे अन यू (JNU) की लड़कियों से हैंड सेक करने में | डर लगता है नार्थ - ईस्ट की नन्ही आँखों में सदियों से कायम ख़ौफ़ से स्मार्ट फोन की स्मार्ट दुनिया के स्मार्ट शो ऑफ से | डर लगता है कि कितनी जीपें आई - गयी बुंदेलखंड सूखा का सूखा है स्कीम के बैनर चमक रहे हैं फिर भी झुग्गी वाला बच्चा

A date so late that romance might suffer

On 18 th   April, I was sitting in a big auditorium, clapping and smiling for people who were part of 5 years of IIT journey. It was a farewell award ceremony at IIT Kharagpur. Just few minutes ago I gave a two minute speech from the stage. People loved it; at least the reception voice meant so.Yes the speech has 700 views on Youtube (P.S. That’s too much for IIT anyway). Two minutes later I was cross checking my mail. Roadrunnr, now Runnr has delayed my date of joining to 5 th December. For a moment I felt it’s a birthday present as the date approximately coincides with the same. An hour later I was working on my cv, designing it again as a literal winter was coming. A day later I had an account with iimjobs.com, my linkedin tagline felt the metamorphosis. A fear of insecurity hovers over the fear of delay. This is not my story. This is the story of 15+ people hired by Runnr from IIT Kharagpur, and a similar figure hired from IIT Rorkee and other colleges. Except for a

रोटी और तनख्वाह

मैंने सोचा था जिस दिन मुझे ये एहसास हो जाएगा की मेरी रोटी पक्की है, मेरी तनख्वाह पक्की है, उस दिन मैं भर दूंगा सारा उधार जो मैंने नज़्मों से ले रखा है उस दिन मैं पूरा कर दूंगा वो सारी फरमाइशें जो नज़्मों ने मुझसे की थी और मैंने आँखें बंद करके हामी भर दी थी वो सारे वायदे, वो सारी कवायदें जो मैंने नज़्मों के माथे पे हाथ रख कर की थी | फिर एक दिन मेरी रोटी पक्की हो गयी मेरी तनख्वाह पक्की हो गयी उस दिन मुझे एहसास हुआ लफ़्ज़ों के क़र्ज़ रोटी और तनख्वाह से भरे नहीं जा सकते |

बागी

जिस कदर सलाखों में कैद भगत सिंह पढ़ा करता है लेनिन को ठीक वैसे ही मैं पढता हूँ तुझे | मैं पिंजरे में कैद बागी हूँ मैंने उतार दिए हैं पिंजरे की दीवारों पे क्रांति की सारी तस्वीरें | जब भी आता है खिड़की से अंदर रोटी  का वो एक टुकड़ा मैं भेजा करता हूँ बाहर कागजों के चिठ्ठे जिसमें दर्ज हैं हमारी तुम्हारी तकदीरें | मैं अपने नाख़ून के बढ़ने का  इंतजार करता हूँ हर महीने नाखूनों से कुरेद दिए हैं मैंने इन दीवारों पे वो सारी नज़्में जिसे कोई चीख के एक बार पढ़ भी डाले तो पिघल जाएंगी ये सलाखें | जिस दिन पिघल जाएंगी ये सलाखें मिलूंगा मैं वहीँ कहीं जहाँ कोई आता जाता नहीं | शायद तुम भी आओगी नहीं ||