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Showing posts from June, 2015

स्कार्फ़ |

अच्छा लगता है ये दोनों एक ही प्लेट में खाते हैं | एक ही छतरी में आधे आधे  भींगते ऑफिस जाते हैं | हाथ पकड़ कर चलते हैं जैसे उम्मीदों का सौदाई कैद है हथेलियों के पिंजर में | बेजोड़ हँसते हैं ये दोनों शहर के सन्नाटे पे भारी है , टूटे कांच की माफिक इनकी हंसी | अच्छा लगता है ये दोनों कुछ कुछ अलग से नज़र आते हैं | वादे दर वादे करते हैं वादे दर वादे निभाते हैं | तो क्या ये मुमकिन है शायद जिस दिन वायदों का एक तागा हलके सिकन से टूट जाएगा दोनों अपने अपने रास्ते निकल लेंगे ; नए इश्क़ की तलाश में ? चलो फिरभी अच्छा ही ये दोनों वायदों के कारिंदे हैं | हम जैसे आवारे नहीं || हम कितने आवारे हैं हर रात वादे करते हैं हर सुबह मुकर जाते हैं | तुम्हारे ख्वाईश की कागजी कश्ती मुंबई के मानसून में डूब जाती है | और तुम कितनी मासूम हो जाना एक आस लगाये बैठी हो कभी तो थम्हेगी ये बारिस और स्ट्रीट के किनारे किनारे रंगीन स्कार्फ़ का स्टाल लगेगा | मैं लेकर आऊंगा || चलो अच्छा है हम दोनों वायदों के कारिंदे नहीं , हमें नए इश्क़ की तलाश नहीं इसी खोली में एक दूसरे से लड़ते लड़ते मर जायेंग

साकी

कितने करार तोड़ आया हूँ , कोई तो हिसाब दे लबों पे इतने रंज हैं साकी,कुछ तो जवाब दे ।। रास नहीं आते अब परदों पे उतरते चढ़ते समीकरण वो तितलियों के किस्से वाली गहरी नीली किताब दे ।। ले ले सारे कस्मकश मेरे हिस्से की साकी शीशे का एक गिलास दे, भींगते मौसम का ख़्वाब दे ।। जिंदगी के सारे मकां पे लुट गया हूँ मैं साकी ,मुझे आज तू अपने पसंद की शराब दे ।।