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Showing posts from September, 2015

A clip from Friday Knights poetry meet

Thank you kedia, for such an awesome line of appriciation.

पेशे से इंजीनियर है , शायर सा रहता है ॥

कुछ खबर, कुछ बेखबर सा रहता है  दिन आजकल बे-असर सा रहता है ॥  छुपाये  कहाँ , ख़ामोशी की आबरू अपनी  हर एक नज़र,  एक नज़र सा रहता है ॥  कुछ इस तरह हुआ है,  फ़िज़ाओं का असर  वो अपने कमरे में भी, दफ्तर सा रहता है ॥  फकीरी का चराग बनकर उठता है हर रात  खैर, अपने ही नज़्मों में, पिंजर सा रहता है ॥  आश्ना से बेफिकर , फलसफों से बहुत दूर  पेशे से इंजीनियर है , शायर सा रहता है ॥ 

धुआँ

जब कभी  किसी नुक्कड़ पे  कोई किसी के काँधे में  हाथ डाले चलता है ;  टूटते तारों को फूंक फूंक के  कसमें - वादे करता है ; सामने वाले की लबों पे  अपनी नन्ही सी अंगुली रखकर  अनचाही बातों से डरता है ; तब  वो सारी सोहबतें, सारी शामें ,सारे सफ़हे  (जिनमें दर्ज हैं तुम्हारे हमारे अफ़साने) याद आते हैं ;  जिन्हें मैंने जला डाला |  मैं इस कसमकश में दर बदर  भटक रहा हूँ बेखबर :  इस जलती बुझती चिंगारी  में  मेरा कितना हिस्सा है | मैं आदि हूँ या अंत सजर  मैं वक्ता हूँ या मूक प्रखर  मैं माचिस हूँ या काठी हूँ ; गर मैं माचिस हूँ तो काठी कौन है  गर मैं काठी हूँ  तो माचिस कौन है ? अब इतना तो तुझे समझ होगा जानां  चिंगारी  यूँ ही नहीं जलती | ये धुआँ  जितना मेरा है  उतना ही तुम्हारा भी ||