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Showing posts from November, 2017

दिन आखिर ढलता ही नहीं है

दिन ढलता ही नहीं है जम गया है सीने में रक्त थक्के की तरह सुबह की आंच में उबलता ही नहीं है चिमनी के कोयले में जलता ही नहीं है  दिन आखिर ढलता ही नहीं है | गर ये बन गया है पाप की ईमारत प्रायश्चित की लेप कहाँ से लाऊँ ? गर ये बन गया है प्रतिद्रोह की ज्वाला शांति का मेघ कहाँ से लाऊँ ? उठ बैठता गर ये होता स्वप्न अटल सत्य कैसे झूठलाऊँ ? मैं स्वयं जल रहा हूँ रुधिर के ताप में मैं स्वयं हूँ शोषित स्वयं के आलाप में किसको बतलाऊँ, किसको समझाऊँ ? दिन आखिर ढलता ही नहीं है रात्रि के आँगन में कैसे जाऊँ ?