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Showing posts from March, 2015

हर एक घर के बेसमेंट में , यूँ ही दो चार मैं हूँ ||

पिछले Friday knights meet में  शैलेश ने एक अच्छी नज़्म सुनाई थी " वो पापा थे " | कुछ कुछ उसी क्रम में बदलते दौड़ , बदलते रिश्ते और रिश्तों के बीच की खाई बयां करने की कोशिश है एक पिता के नज़रिये से तुम्हारे सारे बिखरे जख्मों का ,अकेला शिकार मैं हूँ ये सारी हुकूमत तो तेरी है , बस  सरकार मैं हूँ || ऊँगली पकड़ के मैंने तुमनें आसमान तक पहुँचाया है अब घर का जर्रा कहता है, घर में बेकार मैं हूँ || कल हो जायेगी नीलाम   , हर एक ईंट सरेआम तुम्हें इसकी फ़िक्र नहीं , क्यों बेकरार मैं हूँ || तुम्हारी सारी पीढ़ी ने क्लासलेस करार दिया मुझे लेकिन अपनी मेहबूबा का , आज भी जां निसार मैं हूँ || ये बस मेरी  कहानी नहीं , हर चौराहे का अफ़साना है हर एक घर के बेसमेंट में , यूँ ही दो चार मैं हूँ ||

आवारगी

Hindi elocution 2015  P.S > script won team Bronze for RK . कभी कभी ऐसा एहसास होता है की हमने खुद अपने हाथों बुझा दिए हैं , मुहब्बतों के दिए जला के | हम सब किसी न किसी कतार के हिस्से हैं | हर तरफ आवाजें हैं , अज्ञात और बेनिशान , ना जाने किसको पुकार रही हैं ? ना जाने किसे बुला रही है ? लोग भागे जा रहे हैं |   ये जो हमारी लेक्चर , टूटोरियल , प्रैक्टिकल की दुनिया है , ये जो ७ . ३० से ५ . ३० बजे की दिनचर्या है : इस कसमकश और बेचैनी में , हमारे छुटपन की आवारगी , कहीं न कहीं दम तोड़ती नज़र आती है | मान्यवर आज मेरे चर्चा का विषय है " आवारगी " | मैं मानता हूँ , ये विषय इस सदन के बने बनाये सिलसिले को एक झटके में तोड़ देता है , खैर यही तो आवारगी है | घबराइये नहीं | आवारा कोई बुरा लफ्ज़ नहीं है | आवारा से ये मतलब नहीं है की वो जो सड़कों पे सिटी बजा रहा है , लड़कियां छेड़ रहा है : हेलो मैडम ई आम योर एडम | आवारा वो है , जो

आज कल लाश उगते नहीं ||

Poem is inspired from Sankha Aditya​'s "Who will apologise for these ? " फूटपाथ के किनारे किनारे अब और घास उगते नहीं || रिफाइनरी के आगोश वाला वो चाँद कितना स्याह पड़ गया है ; जुबान  खोलता है कुछ कहने को धुँआ भरा है  कंठ में अब और सांस उगते नहीं || याद है अहले सुबह बाँध  किनारे करचियां काटा करते थे ठिठुर गए हैं सारे कोंपले अब और बांस उगते नहीं || कितना कचरा खाता है आदमी पथ्थर बांधने की अब और जरुरत नहीं , फेंक दो किसी पास की बेंती में आज कल लाश उगते नहीं || करचियां =Thin bamboo culm ,used as tooth brush in villages .  बेंती = River stream आज कल लाश उगते नहीं  = with changing scenario and excessive use of pesticides and all , we are being fed with so much of useless craps , that if some one attempts a murder and throws the body in river , it won't float , it will sink . This is narrator's imaginative anger that challenges the notional science.

शहर

कभी कभी शहर को उन पंछियों के नज़र से भी देखना चाहिए , जो किसी मौसम या हालात में शहर आते हैं और फिर शाम होते ही घर को लौट जाते हैं | मैं भी कुछ कुछ वैसा ही हूँ , लौटते वक़्त कावेरी रेस्त्रां से खाना  पैक करवाते करवाते , कुछ ऐसा एहसास हुआ | ये ब्लॉग कावेरी में बिताये गए उस आधे घंटे के नाम है , ये ब्लॉग वेटिंग टाइम के नाम है , और एक शहर के नाम है | *********************************** बार बार किसी शहर में खुद की तलाश करते करते , कुछ कुछ अपना सा लगने लगता है शहर | शहर उम्मीदों से बनता है , और जिस शहर में आपकी उम्मीद पलती है , वही आपका अपना शहर बन जाता है | कॉफी डे की टेबलें , या आसामी चाय का स्वाद शहर के साथ नहीं बदलता |  ना ही मॉल के एस्कलेटर्स  बदलते हैं | अगर कुछ बदलता है , तो बदलता है शहर के साथ एक कशिश , एक अपनापन | हमने शहरों को बनाया है , अब शहरें हमें बनाती है | शहरें हमें सिखाती है , की ये जिंदगी का कौन सा मकां है , इस मकां के रिश्ते कितने नाजुक है | ये रिश्ते बस इंस्टाग्राम के स्क्रीन तक ही सिमित तो नहीं , इन रिश्तों में कितना वर्तमान है , और कितना भबिष्य |

एक आध तंज ऐ तमाचे पे रोया करते थे जार जार | |

बस की याद आता है वो स्कूली अफ़साने  कुमार एक आध तंज ऐ तमाचे पे रोया करते थे जार जार | | ********************************** अब की जिंदगी के दौड़ का  आलम ऐसा है जान जाती है , आँखों में नमी आती नहीं | | सारी तितलियाँ जिनके तलब दुपहरी गुजरती थी रोज़ नज़र आते हैं , लबों पे हंसी आती नहीं | | यूँ ही कभी बेवजह याद किया करो जाना तुम्हें याद आती नहीं , मुझे दिलकशी आती नहीं | | वो सारी लकीरें जो हमने  मिलकर खींची थी तुमने कभी गिना नहीं , मुझे गिनती आती नहीं | | कब तलक जिएंगे जख्म ऐ चारागरी की तलाश में रहम की गुंजाईश नहीं , मुझे विनती आती नहीं | |

याद आती है |

चलते चलते यूँ ही जब दम टूट जाता है तुम्हारे हाथों की मेहंदी कढ़ाई याद आती है | दुकानें बिखरी हैं सारी , कहीं अब जी नहीं लगता तुम्हारे शहर की मीठी ठंढाई याद आती है || सब कुछ ठीक ठाक होना ,इश्क़ में अच्छा नहीं लगता तुम्हारी पिछले बरस की रुसवाई याद आती है || एक शहर साथ चलता है , फिर भी अकेले हैं सारे शोर - शराबे में एक तन्हाई याद आती है || आसमां नीला है , टरक्वीज़ है या आसमानी है वो रंगों वाली तुम्हारी लड़ाई याद आती है ||

जब मिले थे हम ||

ये लोग बार बार पूछते है क्या बताऊँ कब मिले थे हम | ना किसी पहली बारिस की  इत्तेफ़ाक़ वाली रंगोली थी | ना कोई क्लास रूम था ना कोई आँख मिचौली थी | ना तुमने कभी किताबें गिराई ना मैंने कभी झुक कर उठाया | ना कोई ऐसी मंजिल थी जिसके रास्ते पे हम टकराये थे | बस एक नज़र ; दो चार लफ्ज़ ; और कुछ बुलबुल से खनकते बोल थे | मेरी लाजवाब ख़ामोशी थी जब मिले थे हम ||