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हम यहाँ इस शाम के
खामोश टुकड़े पे पल रहे हैं ;
आप वहाँ इसी शाम के
बेपरवाह टुकड़ों में जल रहे हैं |
आपके हिस्से में
कहीं हम हैं .... कहीं वो है;
कहीं शीशे के माफिक बिखरी तल्खियाँ ;
कहीं उनके तकलीफों में हमारी खामोशियाँ |
कहीं हमारे तोहफे में उनकी तारीख़;
कहीं हमारी खामोशियों में उनकी तकलीफ |
और मेरे हिस्से में
आप हैं ..आपकी मासूमि है...
आपकी ध्वनि है ,.....आपकी प्रतिध्वनि है ...
और जो आप हैं
तो किसी और की क्या ही जरुरत है |
ये हमारे अफसानों की मासूम सी हकीकत है ||
और मेरे हिस्से में
आपके होठों की दरियादिली है
जो हर पिघलते शाम को जवाँ बना देती है|
और मेरे हिस्से में
आपके आँखों का सुरूर है ....
बस लम्हे भर की हँसी है ...
जो कागजों को आईना बना देती है |
वैसे भी......
बाजार में हमारे लफ़्ज़ों की क्या ही कीमत है ;
ये हमारे अफसानों की मासूम सी हकीकत है ||
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