अचानक से एहसास हुआ , रोजमर्रा में कुछ छूट रहा है | इस बार आखिरी मार्च के लिए कोई नज़्म नहीं लिख पाया | ये एक नज़्म आखिरी मार्च के लिए |आखिरी मार्च ही मेरी प्रत्याशा है |
प्रत्याशा
ये एक नज़्म तुम्हारे लिए
याद है
स्कूली बच्चे थे हम दोनों
और
हाथ पकड़ के
कैसे गलियों में घुमा करते थे
अब सोचता हूँ
तो शर्म आती है
वो फर्स्ट फ्लोर वाली आंटी क्या सोचती होगी ?
चाँद के नीचे
सोया करते थे , तुम्हारी गोद में सर रख कर ;
और एक दूसरे को समझाते थे
इश्क़ है , तो सब जायज है |
कोई वादे नहीं किये हमने
कोई कसमें नहीं उठाई कभी
ये कैसा रिश्ता था ;
तुमने कभी कुछ माँगा नहीं
मैंने कभी कुछ दिया नहीं ;
बस वक़्त बीता
और अपने अपने रास्ते निकल गए |
प्रत्याशा
ये एक नज़्म तुम्हारे लिए ||
प्रत्याशा
ये एक नज़्म तुम्हारे लिए
याद है
स्कूली बच्चे थे हम दोनों
और
हाथ पकड़ के
कैसे गलियों में घुमा करते थे
अब सोचता हूँ
तो शर्म आती है
वो फर्स्ट फ्लोर वाली आंटी क्या सोचती होगी ?
चाँद के नीचे
सोया करते थे , तुम्हारी गोद में सर रख कर ;
और एक दूसरे को समझाते थे
इश्क़ है , तो सब जायज है |
कोई वादे नहीं किये हमने
कोई कसमें नहीं उठाई कभी
ये कैसा रिश्ता था ;
तुमने कभी कुछ माँगा नहीं
मैंने कभी कुछ दिया नहीं ;
बस वक़्त बीता
और अपने अपने रास्ते निकल गए |
प्रत्याशा
ये एक नज़्म तुम्हारे लिए ||
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