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Showing posts from April, 2015

Gulzar's Namkeen is a literal masterpiece .

Gulzar​'s Namkeen​ reminds of a social demograph  partially realized in Jane Austen​ 's Pride and Prejudice​ . Struggle of three sisters to survive a living , struggle of a mother to protect daughters from their father takes a new interface as a truck driver moves in their home to stay . Movie boldly challenges patriarch social microstructure and more over excels qualitatively in portraying  truck driver   Sanjeev Kumar . Sacrifices and affairs in relationship has been portrayed with a typical yet stunning Gulzar's signature conflict . Shabana Azmi​ is mute yet speaks a lot .    And this song explains a lot . The three sisters are shown pounding grain in the song and going about their work and singing this song with partly nonsense words. Gulzar additionally puts in the words  pantaa bhate tattkaa baigun poraa , which geographically doesn’t make sense, since they are Bangla words of a brinjal dish. I have been told that it means “fresh eggplant ...

वो एक गुलमोहर |

Snapshot of gulmohar tree near by balcony (pre and post ) हर एक बार जब कोई कानूनी फैसला हमें सटीक सा नहीं लगता , हम ये कह कर अखबार के पन्ने  उलट  देते हैं "  कानून अँधा हो गया है | " और हर बार जब कोई प्राकृतिक आपदा आती है , हम ये कह कर पन्ने उलट देते हैं की देखो ऊपर वाला सजा दे रहा है | ये एक नज़्म , उस गुलमोहर के लिए है , जो अर्सों से मेरे नज़्मों का हिस्सा रहा है | चले आ रहे किसी नाटक का आखिरी सीन है ये , ट्रेजेडी है , प्रोटैगनिस्ट मरने वाला है ; कुछ कुछ 70 के दशक की फिल्मों की तरह जिसके आखिरी सीन में अमिताभ मर जाते हैं |  खैर जो भी है पढ़िए : वो एक गुलमोहर जो कल तक बड़ा हसीन था | जिसके फूलों पे पलने वाले भंवरे कभी कभी मेरे कमरे में आते थे ; और मैं ख़ासा परेशाँ होता था | वो एक गुलमोहर रहा नहीं || वो एक गुलमोहर जो आसरा था सारे बेगुनाह परिंदों का ; जिसके ओट में आकर इन्होनें आजाद रविश की तलाश छोड़ दी | वो एक गुलमोहर रहा नहीं || वो एक गुलमोहर जो बड़े अर्सों से मेरे नज़्मों का किरदार था | जो बिना इजाजत मेरे तस्सवुर के कैनवस पे उतर  आता ...

आईने के बिखर जाने से , चेहरे बिखर जाएंगे क्या ?

आईने के बिखर जाने से , चेहरे बिखर जाएंगे क्या उनके चले जाने से , नज़्म संवर जाएंगे क्या ? जो वो पूछें , किस बात से रंजिश है जमीं  शिकायतों के कच्चे चिठ्ठे , हम पढ़ पाएंगे क्या ? यूँ तो पर्चीयां बाँट गयी हैं हमारे मुकद्दर की जब वो सामने  आयेंगें , दो बात कर पाएंगे क्या ? जिस रफ़्तार से चलते हैं हम भरे बाजार में जो एक बार ओझिल हुए , फिर नज़र आएंगे क्या ? उनके सिरहाने से , ख़ास दूर नहीं मेरा शहर यूँ ही कभी दिल्लगी में , इस  शहर आएंगे क्या ? आँखों में बेनूरी लिए भटकता  हूँ  जानां जो वो पहचान बैठे तो , वापस इधर  आएंगे क्या ? 

वो मेरे नज़्मों का क्या होगा ?

वो जिसने कभी न  देखी समंदर वो जिसने कभी ना रेत फांके वो जो कभी नंगे बदन दोपहर की सड़कों पर चला नहीं वो मेरे नज़्मों  का  क्या होगा ? वो एक सवेरा जिसके दूब पर बची नहीं है ओस की बूंदें वो एक क़स्बा जिसकी दुपहरी बीती नहीं पीपल के तल्ले वो सारे बूढ़े जिनकी आँखों में इश्क़ इनायत , दुआ नहीं वो मेरे नज़्मों  का  क्या होगा ? वो जिसकी आँखों की रौशनी  में पुराने जख्मों का सफर नहीं वो जिसको अपनी बेनूरी की दास्ताँ का  खबर नहीं वो जिसके चेहरे पे दो एक चार पिछले जंग का असर नहीं वो जो वक़्त का हुआ नहीं वो मेरे नज़्मों  का  क्या होगा ? वो जो ख्वाइशों के सिलसिले में रिश्तों से दूर भटक गया है तरक्कियों की अट्टालिकाएं बनाये वापस घर लौटा नहीं वो जो अपनों का हुआ नहीं वो मेरे नज़्मों  का  क्या होगा ?

ठाकुर

कहा जाता है , पुरवा हवा का झोंका , पुराने दर्द बढ़ा देता है ; जमींदारी प्रथा और उस दौड़ में जमींदारों द्वारा नीचले किसानों के प्रति अपनाये गए रवैये को पढ़ते पढ़ते , ऐसा एहसास हुआ की , हर एक सख्स अपने आने वाली पीढ़ी को कुछ न कुछ विरासत में देता है | कोई गुलिस्तां देता है , कोई मकां देता है ; ये सब शायद वे लोग हैं , जिन्होनें अपने बच्चों को सितम की दास्ताँ दी है | ठाकुर , तुम्हारे जख्मों का नाम -ओ - निशां कुछ ऐसा है | जब भी पुरवाई चलती है मेरा बच्चा रोने लगता है || 

जानां

इतना तो तय हो गया है गुजरते वक़्त के साथ न तुम , तुम रहे ;  न हम ,हम रहे | रुत बदला है , तो कुछ कुछ  रुख भी बदला है | हाँ तब की बात और थी जब भी मिलते थे तितलियों , दुपट्टे की बातें करते थे आसमां नीला है , आसमानी है , टरक्वीज़ है रंग , रंग पे लड़ते थे | बेजोड़ तैयारी से एक दूसरे के लिए संवरते थे | तुम्हारा आधा वक़्त तो इस कसमकश में गुजर जाता था कॉफी  पियें , तो कौन सा ? जिंदगी जियें , तो किस तरह ? और लंच टेबल पे जब एक चम्मच उचक के हाथों से गिर जाता था दोनों जोर के हँसते थे | अब जब भी मिलते हैं नौकरी , पेशा और अकादमी की बातें होती है चम्मच , स्पून बन गया है ; कभी गिरता नहीं | और जो गिर जाए तो क़यामत आती है हंसी आती नहीं || कितना कुछ बदल गया है जानां एक चांदनी सफर से उतरकर बेजार दरिया में आ गए हैं हम | हम भी वैसे ही हो गये हैं ; जिनकी खिल्लियाँ उड़ाया  करते थे ||

ये एक नज़्म आखिरी मार्च के लिए ||

अचानक से एहसास हुआ , रोजमर्रा में कुछ छूट रहा है | इस बार आखिरी मार्च के लिए कोई नज़्म नहीं लिख पाया | ये एक नज़्म आखिरी मार्च के लिए |आखिरी मार्च ही मेरी प्रत्याशा है | प्रत्याशा ये एक नज़्म तुम्हारे लिए याद है स्कूली बच्चे थे हम दोनों और हाथ पकड़ के कैसे गलियों में घुमा करते थे अब सोचता हूँ तो शर्म आती है वो  फर्स्ट फ्लोर वाली आंटी क्या सोचती होगी ? चाँद के नीचे सोया करते थे , तुम्हारी गोद में सर रख कर ; और एक दूसरे को समझाते थे इश्क़ है , तो सब जायज है | कोई वादे नहीं किये हमने कोई कसमें  नहीं उठाई कभी ये कैसा रिश्ता था ; तुमने कभी कुछ माँगा नहीं मैंने कभी कुछ दिया नहीं ; बस वक़्त बीता और अपने अपने रास्ते निकल गए | प्रत्याशा ये एक नज़्म तुम्हारे लिए ||