पिछले Friday knights meet में शैलेश ने एक अच्छी नज़्म सुनाई थी " वो पापा थे " | कुछ कुछ उसी क्रम में बदलते दौड़ , बदलते रिश्ते और रिश्तों के बीच की खाई बयां करने की कोशिश है एक पिता के नज़रिये से
तुम्हारे सारे बिखरे जख्मों का ,अकेला शिकार मैं हूँ
ये सारी हुकूमत तो तेरी है , बस सरकार मैं हूँ ||
ऊँगली पकड़ के मैंने तुमनें आसमान तक पहुँचाया है
अब घर का जर्रा कहता है, घर में बेकार मैं हूँ ||
कल हो जायेगी नीलाम , हर एक ईंट सरेआम
तुम्हें इसकी फ़िक्र नहीं , क्यों बेकरार मैं हूँ ||
तुम्हारी सारी पीढ़ी ने क्लासलेस करार दिया मुझे
लेकिन अपनी मेहबूबा का , आज भी जां निसार मैं हूँ ||
ये बस मेरी कहानी नहीं , हर चौराहे का अफ़साना है
हर एक घर के बेसमेंट में , यूँ ही दो चार मैं हूँ ||
तुम्हारे सारे बिखरे जख्मों का ,अकेला शिकार मैं हूँ
ये सारी हुकूमत तो तेरी है , बस सरकार मैं हूँ ||
ऊँगली पकड़ के मैंने तुमनें आसमान तक पहुँचाया है
अब घर का जर्रा कहता है, घर में बेकार मैं हूँ ||
कल हो जायेगी नीलाम , हर एक ईंट सरेआम
तुम्हें इसकी फ़िक्र नहीं , क्यों बेकरार मैं हूँ ||
तुम्हारी सारी पीढ़ी ने क्लासलेस करार दिया मुझे
लेकिन अपनी मेहबूबा का , आज भी जां निसार मैं हूँ ||
ये बस मेरी कहानी नहीं , हर चौराहे का अफ़साना है
हर एक घर के बेसमेंट में , यूँ ही दो चार मैं हूँ ||
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