देर तक सोचता रहा
मिल जाए दो एक लफ्ज़
तो बुन दूँ तुम्हारे दर्द
कुछ स्केच खींच कर अचरे को सजा दूँ
जैसे कुछ अधखिले गुलाब तूफानी मंजर से परेशां परेशां से
देर तक सोचता रहा
ट्रेन इटारसी से खुल कर अलाहाबाद पहुँच गयी
कुछ भी तो मिला नहीं।
बीच में किसी चैन पुल कर रोकी थी
शायद उसका घर यहीं कहीं पड़ता था।
पूरा कम्पार्टमेंट इस मुद्दे पे बहस में लगा था
तब भी मैं तुम्हें ही सोचता रहा
कुछ भी तो मिला नहीं।
शायद तुम्हारे दर्द की
आदत सी हो गयी है।
और
आदतों पे नज़्म नहीं लिक्खे जाते।
मिल जाए दो एक लफ्ज़
तो बुन दूँ तुम्हारे दर्द
कुछ स्केच खींच कर अचरे को सजा दूँ
जैसे कुछ अधखिले गुलाब तूफानी मंजर से परेशां परेशां से
देर तक सोचता रहा
ट्रेन इटारसी से खुल कर अलाहाबाद पहुँच गयी
कुछ भी तो मिला नहीं।
बीच में किसी चैन पुल कर रोकी थी
शायद उसका घर यहीं कहीं पड़ता था।
पूरा कम्पार्टमेंट इस मुद्दे पे बहस में लगा था
तब भी मैं तुम्हें ही सोचता रहा
कुछ भी तो मिला नहीं।
शायद तुम्हारे दर्द की
आदत सी हो गयी है।
और
आदतों पे नज़्म नहीं लिक्खे जाते।
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