कभी कभी शाम ऐसे ढलती है
तुम्हारे होठों की रागिनी छूकर गुजरती है
मेरे सेहरे से चेहरे को
जब तक हाथ उठाता हूँ उसे पकड़कर कैद करने को
निकल जाती है दूर गलियों से परे
कितनी आसान हो जाती जिंदगी
गर तुम्हें कैद कर पाता किसी बंद बक्शे में
दिल लगाने के लिए लड़ लिया करते जब तब
किसी भी बेजोड़ बेवजह से मुद्दे पे
जैसे कोई पार्लियामेंट का डिबेट चलता है
तुम्हारे होठों की रागिनी छूकर गुजरती है
मेरे सेहरे से चेहरे को
जब तक हाथ उठाता हूँ उसे पकड़कर कैद करने को
निकल जाती है दूर गलियों से परे
कितनी आसान हो जाती जिंदगी
गर तुम्हें कैद कर पाता किसी बंद बक्शे में
दिल लगाने के लिए लड़ लिया करते जब तब
किसी भी बेजोड़ बेवजह से मुद्दे पे
जैसे कोई पार्लियामेंट का डिबेट चलता है
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