दिन ढलता ही नहीं है जम गया है सीने में रक्त थक्के की तरह सुबह की आंच में उबलता ही नहीं है चिमनी के कोयले में जलता ही नहीं है दिन आखिर ढलता ही नहीं है | गर ये बन गया है पाप की ईमारत प्रायश्चित की लेप कहाँ से लाऊँ ? गर ये बन गया है प्रतिद्रोह की ज्वाला शांति का मेघ कहाँ से लाऊँ ? उठ बैठता गर ये होता स्वप्न अटल सत्य कैसे झूठलाऊँ ? मैं स्वयं जल रहा हूँ रुधिर के ताप में मैं स्वयं हूँ शोषित स्वयं के आलाप में किसको बतलाऊँ, किसको समझाऊँ ? दिन आखिर ढलता ही नहीं है रात्रि के आँगन में कैसे जाऊँ ?
|शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर |