इस गली में, जिसमें मेरा रोज़ का आना जाना है, कुल मिला के सात चाय की दुकानें हैं | कहीं ४ रुपये की चाय है, कहीं ५ की, कहीं ६ और कहीं ७ की | ऐसा भी नहीं है की ५ रुपये वाली चाय, ४ वाली से अच्छी है या फिर बड़ी | ऐसा भी नहीं है की ६ रुपये वाली चाय ५ वाली से अच्छी है या फिर बड़ी | यहाँ की चाय बस चाय है, सस्ती चायपत्ती और टी-स्पेशल वाला दूध का पैकेट | चूल्हे में थोड़ा बहुत फर्क है, वो किनारे वाली अम्मा कोयला और गोयठा जलाती है, ये सामने वाला स्टोव जलाता है, जो सबसे व्यस्त दूकान है वहां सबकुछ गैस-चूल्हे पे होता है | लेकिन हर एक दूकान पे चाय पीने वाले हैं | शायद ये लोग इस बात से वाकिफ हैं की चाय कीमत पे नहीं बिकती है, आदत पे बिकती है | जो जहाँ जाता है वहीँ जाएगा, क्योंकि चाय से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, चाय पे चर्चा, वो चार लोग जो एक वक़्त और ठिकाने पे हर रोज़ मिलते
हैं | चाय की इस दुकानदारी में आर्बिट्राज का कोई मतलब नहीं रहता | ऐसे ही एक चाय की दूकान पे आज मैंने ये एक कविता लिखी जिसका चाय से कोई लेना देना नहीं |
सुबह होने से बहुत पहले
आधी रात के स्वप्न में
मैंने तुम्हारे दरवाजे पे दस्तक दी
जंजीरों को खंगाला
तुम्हारी खिड़कियों को टटोला |
मुझे समझ नहीं आता, तब
मैंने तुम्हारा घर तोड़ा
या फिर तुम्हें उन्मुक्त किया ?
ठीक इसी तरह
शाम होने के बहुत बाद
आधी रात के स्वप्न में
तुमने मेरे दरवाजे पे दस्तक दी
जंजीरों को खंगाला
मेरी खिड़कियों को टटोला |
मुझे समझ नहीं आता, तब
तुमने मुझे ख्वाब बेचा
या फिर यथार्थ का एक आईना बेचा
जिसमें नज़र आता हूँ मैं
बिलकुल बेबस और कुरूप |
Comments
Post a Comment