बड़ी सिद्धत से दोनों ने
जो अर्सों पहले बाँधा था |
आज
बड़ी मस्सकत से
वही एक डोर खोल रहे हैं |
दो चार गिरह खोलते खोलते
एहसास होता है :
कितना मुश्किल है
फलसफों से मुँह फेरना
पुराने तरंगों को छेड़ना ;
कितना मुश्किल है
तन्हा रातों को मापना ;
तारों की बस्ती को
अब्र ए कफ़न से ढाँपना ।
कितना मुश्किल है
उन कच्चे कोयलों पे नाचना
जिसे सदियों के सूरज ने
शोला बना दिया है ॥
चलो फिर
क्यूँ ना
इन दो चार खुले गिरहों को
एक बार फिर से बांधते हैं ?
गर ये आग का दरिया है
तो आग का दरिया फांदते हैं ॥
जो अर्सों पहले बाँधा था |
आज
बड़ी मस्सकत से
वही एक डोर खोल रहे हैं |
दो चार गिरह खोलते खोलते
एहसास होता है :
कितना मुश्किल है
फलसफों से मुँह फेरना
पुराने तरंगों को छेड़ना ;
कितना मुश्किल है
तन्हा रातों को मापना ;
तारों की बस्ती को
अब्र ए कफ़न से ढाँपना ।
कितना मुश्किल है
उन कच्चे कोयलों पे नाचना
जिसे सदियों के सूरज ने
शोला बना दिया है ॥
चलो फिर
क्यूँ ना
इन दो चार खुले गिरहों को
एक बार फिर से बांधते हैं ?
गर ये आग का दरिया है
तो आग का दरिया फांदते हैं ॥
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