कल रात से पटे थे फैले हुए बागानों में ;
गुलमोहर के फूल पत्ते |
सारे बहकर आ गए हैं
मेरे चबूतरे के सामने वाली निचली जमीं पे |
लिपट जाते हैं पैरों से हर बार
जो मैं गेस्ट हाउस से निकल कर ऑफिस तक जाता हूँ ||
हाँ मेरे दोस्त वही बारिस
जो कल तक आसमान के मुखड़े पे
जुल्फों की तरह बिखड़ती थी
और संवर के निकल जाया करती थी
आज ठहरी है इस शहर में |
हाँ मेरे दोस्त वही बारिस
आज कांच की खिड़कियों पे
सिसक सिसक कर टपक रही है जैसे
अर्सों से किसी ने इसकी खबर तक नहीं ली |
हाँ मेरे दोस्त वही बारिस
आज आई है बड़े संजीदे से ,बड़े करीने से |
बिलकुल पहले इश्क़ की पहली गुड न्यूज़ की तरह
पसर गयी है
पिच रोड से लेकर कार्ला ब्रूस के क्रिकेट कंपाउंड तक
रोज कॉटेज से लेकर रोज गेस्ट हाउस तक |
हाँ मेरे दोस्त वही बारिस
आज ठहरी है इस शहर में |
एक वक़्त के लिए ही सही
मॉनसूनी आशाओं के पर्चे बाँट रही है ;
सड़क के किनारे खड़े हो कर ||
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