इस कमरे की खिड़की से
अब वो चाँद नज़र नहीं आता है।
टुकड़ों टुकड़ों में बंटे सन्नाटे हैं ,
जैसे परिंदों के पर बाँध दिए हैं वक़्त ने।
एक छोटा सा रोहन था।
सामने छत पे बैडमिंटन खेलता रहता था।
कहता था
" साईना से शादी करेगा
या फिर उसकी बेटी से ।"
ठीक आठ बजे सड़क पे खड़ा हो जाता था ;
दोनों तरफ देखता रहता था
इंतजार :
पता नहीं किधर से पेपर वेंडर आ जाये।
खेल पृष्ठ निकाल लेता था
और बांकी मुझे दे देता था ।
"आप सियासत पढ़ो भैया"
कह कर खो जाता था 15-13, 15-12....
ब्लेड से कुछ तस्वीरें काटता
और अपनी कॉपी में चिपकाता था।
वो कॉपी एक रद्दी के शेल्फ पे पड़ा है।
छत सर्द पड़ा है,
ना कोई बैडमिंटन है ,
ना फीदर के बिखर जाने की कसक ।
पेपर वाला कब आता है
किसी को खबर नहीं।
ना कोई इंतजार है , ना जरुरत ।
अब कोई रोहन नहीं है।
होस्टल में रहता है, और मैथ्स की कोचिंग लेता है।
"उसे भी iitian बनना है"
उसके डैड कहते हैं।
उफ़, मैंने पागल कर दिया है सबको।
अब कोई रोहन नहीं है।
कोई रोहन बनना भी नहीं चाहता।
किसी से रोहन बना भी नहीं जाता है।
इस कमरे की खिड़की से ,
अब वो चाँद नज़र नहीं आता है।।
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