घर कैसा भी हो
दीवारों के दो चार टुकड़े
सलाखों के चंद पल्ले ही सही
जाते जाते एक कसक छोड़ ही जाता है ।
दो मंजिले पे आजकल कितने कबूतर आते हैं;
दरवाजे के आलाव में कितनी आग ठहरती है
चाय और सियासत के चर्चे में जीत किसकी होती है
वो कौन है जो हर रोज़ शैर के वक़्त रोकता है ;
बड़े अदब से पूछता है
"सर ये रास्ता कहाँ तक जाता है?
घर आखिर घर है,जाते जाते याद आता है।
घर आखिर घर है
मेरी रुसवाईयों का तकिया है ,
मेरे इश्क का रस्म है
मेरा एक हिस्सा है ,
मैं इसका एक हिस्सा हूँ।
सामने तुलसी के साथ उगते गुलाब की फीकी पड़ती चमक
दूर दूर तक फैली सरसों की मासूम सी महक
आम के कंधे पर तख़्त के झूले
कोई आँख मूंदे ,हम छुप जाएँ
कोई दौड़े , हमें छू ले ।
जाते जाते एक कसक छूट ही जाता है।।
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