मैं बार बार कहता हूँ
" खिडकियों पे परदे लगा के रखो ,
तुम्हें समझ नहीं आता !"
देखो
बाहर एक चाँद उठा है ;
कितनी नज़दीक से एक टक लगाये ताक रहा है |
जैसे की उसका प्रतिबिम्ब तुम्हारे चेहरे पे खिल रहा हो ;
दुधिया सफ़ेद रंग से नहाया हुआ ,
और कुछ जख्म के धुधले से निशान
बिलकुल चाँद में दाग के माफिक|
चेहरे पे नाजुक तितली की मानिंद बेफिक्री
नज़रों में मानिंद-ए-शमा दिल्लगी
और ईमेल पर भेजे गए तस्वीर की माफिक ख़ामोशी
सबकुछ ...........
सबकुछ कितना साफ़ झलक रहा है |
मैं बार बार कहता हूँ
" खिडकियों पे परदे लगा के रखो ,
तुम्हें समझ नहीं आता !"
" खिडकियों पे परदे लगा के रखो ,
तुम्हें समझ नहीं आता !"
देखो
बाहर एक चाँद उठा है ;
कितनी नज़दीक से एक टक लगाये ताक रहा है |
जैसे की उसका प्रतिबिम्ब तुम्हारे चेहरे पे खिल रहा हो ;
दुधिया सफ़ेद रंग से नहाया हुआ ,
और कुछ जख्म के धुधले से निशान
बिलकुल चाँद में दाग के माफिक|
चेहरे पे नाजुक तितली की मानिंद बेफिक्री
नज़रों में मानिंद-ए-शमा दिल्लगी
और ईमेल पर भेजे गए तस्वीर की माफिक ख़ामोशी
सबकुछ ...........
सबकुछ कितना साफ़ झलक रहा है |
मैं बार बार कहता हूँ
" खिडकियों पे परदे लगा के रखो ,
तुम्हें समझ नहीं आता !"
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