मैं बार बार कहता हूँ " खिडकियों पे परदे लगा के रखो , तुम्हें समझ नहीं आता !" देखो बाहर एक चाँद उठा है ; कितनी नज़दीक से एक टक लगाये ताक रहा है | जैसे की उसका प्रतिबिम्ब तुम्हारे चेहरे पे खिल रहा हो ; दुधिया सफ़ेद रंग से नहाया हुआ , और कुछ जख्म के धुधले से निशान बिलकुल चाँद में दाग के माफिक| चेहरे पे नाजुक तितली की मानिंद बेफिक्री नज़रों में मानिंद-ए-शमा दिल्लगी और ईमेल पर भेजे गए तस्वीर की माफिक ख़ामोशी सबकुछ ........... सबकुछ कितना साफ़ झलक रहा है | मैं बार बार कहता हूँ " खिडकियों पे परदे लगा के रखो , तुम्हें समझ नहीं आता !"
|शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर |