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Showing posts from July, 2016

खिड़कियां |

आज मैंने फैसला किया है अपने घर की सारी खिड़कियों को बंद करने का | मेरी खिड़कियों से नजर आती हैं कितनी सारी खिड़कियां और हर एक में कैद बैठी हैं कितनी सारी नज़्में ये नज़्म इश्क़ का नहीं ये नज़्म मुहब्बत का नहीं ये सारी नज़्में हैं हताशा और निराशा की संघर्ष और तलाश की जीवन और पलायन की जो कहना मुझे आता नहीं | इसीलिए आज मैंने फैसला किया है अपने घर की सारी खिड़कियों को बंद करने का || 

तुम आओ तो सही |

मैं यहीं हूँ यहीं रहूँगा तुम आओ तो सही | मैं तुम्हें कभी ये कहने का मौका नहीं दूंगा " यार तुम तो ठहरे ही नहीं " मैं यहीं हूँ यहीं रहूँगा तुम आओ तो सही | तुम आओ तो सही की हम इस घर में सारी बत्तियां बुझा कर एक नन्ही सी मोमबत्ती जलाएं और गीता दत्त की  गीत गुनगुनाएं " जाने क्या तूने कही जाने क्या मैंने सुनी बात कुछ बन ही गयी " मैं यहीं हूँ यहीं रहूँगा तुम आओ तो सही | तुम आओ तो सही की हम एक बार फिर से एक ही कॉफ़ी मग में दो दो स्ट्रॉ डुबाएं और चूँकि ये कलकत्ता है यहाँ चाय भी खाते हैं कॉफ़ी भी खाते हैं तो कुछ तुम खाओ कुछ हम खाएं | ज्यादा नहीं मांगता बस इतना सा ही कि  मैं यही हूँ यहीं रहूँगा तुम आओ तो सही | 

स्विच बोर्ड

मेरे घर का स्विच बोर्ड मेरे आते ही चल पड़ता है| मेरे परछाइयों के साथ चलती है एक दूधिया रौशनी डाइनिंग हॉल की लाइट जल उठती है कमरे के पंखे नाचने लगते हैं | मेरे ठीक सामने वाले घर में बिलकुल धुप्प अँधेरा है, आज भी | उस घर की औरत सारे लाइट, पंखे बंद कर बालकनी में बैठी रहती है एक चादर बिछा कर वहीँ सो जाती है और वक़्त होने पर अपने मोबाइल की रौशनी में अपने बालों को संवारती है | फिर एक आदमी जिसके दाएं कंधे पे एक काले रंग का थैला होता है घर का डोरबेल बजाता है | वो औरत  उठती है लम्बे थम्हे हुए सांस की तरह टूटती है घर का स्विच बोर्ड चलने लगता है दीवार दूधिया सा हो जाता है सारे पंखे दौड़ने लगते हैं और दरवाजा खुल जाता है | इस शहर में बिजली कितनी महंगी है इस शहर में औरत कितनी सस्ती है ||

आत्मनिर्भरता की चोली में एक एकाकीपन का सृजन

किसी ने फरमाइश भेजी है, ब्लॉग पे फोटो भी डाला करो (TCG Team).  पूरा आसमान एक  कॉर्पोरेट फर्म है साहब | और जो परियाँ हैं, जिनका जिक्र दादी - अम्मा  के कहानियों में हुआ करता है, वो सब एक कॉर्पोरेट फर्म के एच आर हैं, सेक्रेटरी हैं, कंसलटेंट हैं| और चूँकि ये कलकत्ता का आसमान है, तो यहाँ  चाय और कॉफ़ी ब्रेक तो होता ही है, सिगरेट ब्रेक भी होता है| कभी कभी सिगरेट ब्रेक में  ये परियाँ अपने किसी सीनियर को सामने देख कर, अपनी आधी जली सिगरेट नीचे फेक देती हैं, जिसे हम और आप शुटिंग स्टार कहते हैं|  कलकत्ता से एक नयी शुरुआत करते करते मुझे ऐसी ही कहानियां याद आती हैं आजकल| 20 साल अलग अलग शहरों में अलग अलग अट्टालिकाओं में दीवाने की तरह घूमते घूमते आखिर आज कोलकाता में आ कर ठहरा हूँ| अगर दिल्ली की पहचान उसके मेट्रो से है, मुंबई  की पहचान उसके व्यस्तता से है तो कलकत्ता की पहचान उसके ठहराव से है| सरकारी कागजों पे नाम जरुर बदल गया है, लेकिन शाम की चौकड़ी, चाय पे ताश के  पत्ते, और सिगरेट की आबोहवा आज भी उतनी ही है, जितना मैंने अपने इतिहास के टीचरों से सुना था...