जिस कदर सलाखों में कैद
भगत सिंह पढ़ा करता है लेनिन को
ठीक वैसे ही मैं पढता हूँ तुझे |
मैं पिंजरे में कैद बागी हूँ
मैंने उतार दिए हैं पिंजरे की दीवारों पे
क्रांति की सारी तस्वीरें |
जब भी आता है खिड़की से अंदर
रोटी का वो एक टुकड़ा
मैं भेजा करता हूँ बाहर
कागजों के चिठ्ठे
जिसमें दर्ज हैं
हमारी तुम्हारी तकदीरें |
मैं अपने नाख़ून के बढ़ने का
इंतजार करता हूँ हर महीने
नाखूनों से कुरेद दिए हैं मैंने
इन दीवारों पे वो सारी नज़्में
जिसे कोई चीख के
एक बार पढ़ भी डाले
तो पिघल जाएंगी ये सलाखें |
जिस दिन पिघल जाएंगी ये सलाखें
मिलूंगा मैं
वहीँ कहीं
जहाँ कोई आता जाता नहीं |
शायद तुम भी आओगी नहीं ||
भगत सिंह पढ़ा करता है लेनिन को
ठीक वैसे ही मैं पढता हूँ तुझे |
मैं पिंजरे में कैद बागी हूँ
मैंने उतार दिए हैं पिंजरे की दीवारों पे
क्रांति की सारी तस्वीरें |
जब भी आता है खिड़की से अंदर
रोटी का वो एक टुकड़ा
मैं भेजा करता हूँ बाहर
कागजों के चिठ्ठे
जिसमें दर्ज हैं
हमारी तुम्हारी तकदीरें |
मैं अपने नाख़ून के बढ़ने का
इंतजार करता हूँ हर महीने
नाखूनों से कुरेद दिए हैं मैंने
इन दीवारों पे वो सारी नज़्में
जिसे कोई चीख के
एक बार पढ़ भी डाले
तो पिघल जाएंगी ये सलाखें |
जिस दिन पिघल जाएंगी ये सलाखें
मिलूंगा मैं
वहीँ कहीं
जहाँ कोई आता जाता नहीं |
शायद तुम भी आओगी नहीं ||
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