कभी कभी यूँ भी होता है इश्क़ में :
कुछ भी इश्क़ जैसा नहीं रहता |
न कुछ कहने को होता है ,
न कोई सुनने को चश्मदीद ;
न कोई आहट , न दिल्लगी
न कोई सरसराहट किसी के आने जाने की |
तब ये दीवारें , थोड़ी मुश्किल सी लगती है |
कुछ कुछ मुजरिम सा एहसास होता है |
कभी कभी यूँ भी होता है इश्क़ में :
तबियत ज़ार ज़ार हो जाती है
कुछ भी इश्क़ जैसा नहीं रहता ||
कुछ भी इश्क़ जैसा नहीं रहता |
न कुछ कहने को होता है ,
न कोई सुनने को चश्मदीद ;
न कोई आहट , न दिल्लगी
न कोई सरसराहट किसी के आने जाने की |
तब ये दीवारें , थोड़ी मुश्किल सी लगती है |
कुछ कुछ मुजरिम सा एहसास होता है |
कभी कभी यूँ भी होता है इश्क़ में :
तबियत ज़ार ज़ार हो जाती है
कुछ भी इश्क़ जैसा नहीं रहता ||
vaah ustad...kya mst likhey ho. :)
ReplyDeleteaapke chhatra chhaya mein seekh rahe hain ustaad
Delete