काफी देर तक चाँद और बादल में अंगराइयों का खेल चलता रहा | आसमान का वो टुकड़ा , कब फलक से उतर कर बाज़ार तक पहुँच गया , पता नहीं ? मैंने रात का लम्हा लम्हा खर्च कर दिया चाँद को माचिस से जलाने में | मुमकिन नहीं था || कुछ रिश्ते तय नहीं हो पाते हैं ; वक़्त उन्हें लफ्ज़ नहीं दे पाता हम उन्हें जुबान नहीं दे पाते हैं ; कुछ रिश्ते तय नहीं हो पाते हैं ; लिपटकर रह जाते हैं रूह के तह तक जैसे अर्सों से बिखरे चादर को , किसी ने फोल्ड कर ,रख दिया हो बेनजीर याददाश्त के बंद बक्से में | शायद आप और हम भी फलक के एक टुकड़े हैं | अंगड़ाइयां का सिलसिला चलता रहेगा ; खैर चाँद अपने इश्क़ से बाज नहीं आएगा; और बादल अपनी आवारगी से ................ हर रिश्ते का एक नाम हो ,जरुरी तो नहीं !!
|शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर |