दिन इतना जल्दी क्यूँ ढलता है
जो ढलता है
तो जेहन में इतना मचलता क्यूँ है ?
जो ढलता है
तो एक एहसास लेकर क्यूँ ढलता है
और फिर शाम को
मैं कागजों के लेकर बैठता हूँ |
ख्याल आता है :
दर्द को उकेरना कितना आसान है
मुहब्बत के लिए तो लफ्ज़ ही नहीं मिलते
और जो मिलते हैं तो वर्का कम पड़ जाता है ||
ख्याल आता है :
आसाम की चाय तो वही रहती ,
वही स्वाद ,वही अंदाज , वही कॉफ़ी डे की टेबलें
फिर शहर के साथ लम्हा क्यूँ बदल जाता है ?
ख्याल आता है :
वो कौन है जो फलक से उतर कर दिलों पे बैठ गया है
कल तक तो खिडकियों से दीखता था चाँद
आज लबों पे आ गया है
अनायास शर्मो हया का एक डोर टूट जाता है |
ख्याल आता है :
एक नए शहर के साथ
एक नयी जिंदगी आती है |
एक नया रुख एक नया लफ्ज़
एक नयी उन्मुक्ति आती है |
अरसों बीते गीतों का एक नया मायना आता है
और जो दिन ढल जाता है
हरेक लफ्ज़ हरेक लम्हा हरेक रात सताता है |
ख्याल आता है :
दिन इतना जल्दी क्यूँ ढलता है
जो ढलता है
तो जेहन में इतना मचलता क्यूँ है ?
...................................
खैर
जिंदगी फिर भी जिंदगी ही है
एक के सामने एक चलते रिक्शे के माफिक
वक़्त और दायरों ने
एक अजिमोसान फासला बना रखा है |
बिलकुल...
अफसाने और हकीकत के बीच एक फासले के माफिक |
ख्याल आता है :
मुहब्बत क्या कुछ नहीं कर सकती
ये आज दावं पे लग गया है ||
............
छोटे बड़े सारे कागजों को मैंने
एक लिफाफे में रख दिया है |
कैश मेमो ,टिकट और कुछ कॉफ़ी डे के नैपकिन्स |
वक़्त को कैद करने की
एक साजिश तैयार की है मैंने :
नाकाम ............
किन्तु बेइन्तहा मुहब्बत से सजा हुआ ||
जो ढलता है
तो जेहन में इतना मचलता क्यूँ है ?
जो ढलता है
तो एक एहसास लेकर क्यूँ ढलता है
आँखों में एक मंजर क्यूँ छोड़ जाता है ?
और फिर शाम को
मैं कागजों के लेकर बैठता हूँ |
ख्याल आता है :
दर्द को उकेरना कितना आसान है
मुहब्बत के लिए तो लफ्ज़ ही नहीं मिलते
और जो मिलते हैं तो वर्का कम पड़ जाता है ||
ख्याल आता है :
आसाम की चाय तो वही रहती ,
वही स्वाद ,वही अंदाज , वही कॉफ़ी डे की टेबलें
फिर शहर के साथ लम्हा क्यूँ बदल जाता है ?
ख्याल आता है :
वो कौन है जो फलक से उतर कर दिलों पे बैठ गया है
कल तक तो खिडकियों से दीखता था चाँद
आज लबों पे आ गया है
अनायास शर्मो हया का एक डोर टूट जाता है |
ख्याल आता है :
एक नए शहर के साथ
एक नयी जिंदगी आती है |
एक नया रुख एक नया लफ्ज़
एक नयी उन्मुक्ति आती है |
अरसों बीते गीतों का एक नया मायना आता है
और जो दिन ढल जाता है
हरेक लफ्ज़ हरेक लम्हा हरेक रात सताता है |
ख्याल आता है :
दिन इतना जल्दी क्यूँ ढलता है
जो ढलता है
तो जेहन में इतना मचलता क्यूँ है ?
...................................
खैर
जिंदगी फिर भी जिंदगी ही है
एक के सामने एक चलते रिक्शे के माफिक
वक़्त और दायरों ने
एक अजिमोसान फासला बना रखा है |
बिलकुल...
अफसाने और हकीकत के बीच एक फासले के माफिक |
ख्याल आता है :
मुहब्बत क्या कुछ नहीं कर सकती
ये आज दावं पे लग गया है ||
............
छोटे बड़े सारे कागजों को मैंने
एक लिफाफे में रख दिया है |
कैश मेमो ,टिकट और कुछ कॉफ़ी डे के नैपकिन्स |
वक़्त को कैद करने की
एक साजिश तैयार की है मैंने :
नाकाम ............
किन्तु बेइन्तहा मुहब्बत से सजा हुआ ||
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