अब वो शाम नज़र नहीं आती है |
ना वो फलक ,ना वो आसमां ,ना वो दौड़ती लापरवाहियां ;
बस अपने अपने हिस्से की अपनी अपनी खामोशियाँ;
और निःशब्द आँखें उनकी
चुप चाप एक कॊने में बैठी
कागजों से मन बहलाती है
इस कमरे की खिड़की से
अब वो शाम नज़र नहीं आती है ||
और फिर कोई गुलज़ार
किसी दीवार पे लटका कहता जाता है ;
"अपनी खामोशियों के कुछ टुकड़े हमारी शाम को दे दे;
ये हासिये खींच कर ,
दर्द का बड़ा अच्छा हिसाब मिलाता है|
फिर भी कुछ बातें ऐसी है
जो रह रह कर रह जाती है |
इस कमरे की खिड़की से
अब वो शाम नज़र नहीं आती है ||
Comments
Post a Comment