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Showing posts from March, 2013

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जर्द खामोशियों से पटी रात वही पुराने शिकवे - सवालात , और किसी जेल के माफिक खड़े इस अट्टालिका पे  दुधिया  रौशनी में चमकता एक  गुरुर , लॉन में लेटे हुए छोटे छोटे दूब के पत्ते और उन्हें चूमती चंचल हवाओं की कशिश , फलक पे बुत की तरह  बैठा चाँद और बादलों के कुछ बेसॊज नापाक इरादे , पीछे के ब्लाक से छन छन के आ रही हारमोनियम की किलकारियाँ , मेरे इर्द गिर्द के सन्नाटे और जोर पकड़ती सेमेस्टर की तैयारियाँ, और इन सब के बीच मेरी तन्हाई , जो इस उधेरबुन में बैठी है की मेरे सपनों को बुनने का अधिकार तुझे किसने दे दिया है ?

writing something for someone

शाम  और क्षितिज को चूमती रश्मि की दसविदानिया; झरोखों से नज़र आती सम्मा की लौ , तेरी आँखें और आँखों में उतरती चंद इश्क की लकीरें , मेरी नज़रें  और नज़रों में उतरती तेरी  अनकही तस्वीरें ; कुछ मासूम से  सवालात , इत्तेफाक ए मुलाकात,  और मौसम ए ख़यालात ....... ..................... मैं सोचता हूँ कभी कभी .... नज़रों के दायरे न होते  तो क्या बात होती ; जो हम इक बार चाँद देखते  और नज़रें चाँद पे मिलती  तो क्या बात होती , जो तुम्हारी वादियों में बारिसों का कोई   मंजर आता ,   जो तुम्हारी खिड़कियों  पे  खामोशियों का कोई पहर आता , और ऐसे हालत में हमारी मुलाक़ात होती , तो क्या बात होती ; जो हम किसी मोड़ पर अचानक से बेवजह मिलते , बातों ही बातों में जो रात होती  तो क्या बात होती , मैं सोचता हूँ कभी कभी .... नज़रों के दायरे न होते तो क्या बात होती || .................. Incomplete yet loving it 

Nostalgia talks

शाम  और साज़े-सामान से सजे पेचीद सड़कों की हरकतें ; बस्तों को कांधे से बाँधे सिलसिला -ऐ -हसरतें ; क्षितिज को चूमती सुर्ख रौशनी  गुजरती तातों से झांकती जिंदगी  और इम्तेहां लेती दो चार आँखें,  गुजरती गलियों से गुजरती हुई  महबूब की गुजरती यादें , प्लास्टिक  टेबल के इर्द गिर्द  बिखरे हुए दो चार  वक़्त से बेख़ौफ़ कारिन्दे , सात रुपये की चाय और सत्ताइश बातें , और लम्हे...............  बेइंतहा औपचारिक मुहब्बत से सजे हुए; जीने को और क्या चाहिए || मार्च की दुपहरी और मेरे संग चल रहे मेरे साए , वही दो चार गिने चुने चेहरे  वही पुरानी बातें और आशिकी के चर्चे ,  कॉफ़ी डे के टेबलों पे आसाम की चाय   हर मुद्दे पे मेरी नजरिया वाली राय , पास के टेबलों पे लहराते सरीफ दुपट्टे   अश्कों में उभरते  गुजरे वक्त के दुपट्टों के रंग , और खुद को टटोलती  जिंदगी के बचे खुचे हाशिये ; जीने को और क्या चाहिए ||

ELEVEN CUTE QUESTIONS

http://rekspoursout.wordpress.com left one message on my blog post some days ago .I was just not getting time to answer those eleven expected questions.Well here it goes Favourite book? I really do not read many books.Not even course books.Yet taking accounts till date I must go with Paulo Coelho's manual of the warrior of light. Simply framed lines with ideas wrapped like frappe . I extracted three words from this whole book "hope" "faith" and "love".And I believe the most in these three words. And then the author illustrates the meaning of failure is such a lucid fashion "   I carry with of the marks and scars of battles - they are the witnesses of what i suffered and the rewards of what i conquered" # Anyway The argumentative Indian should be the next. Three Favourite Indian movies? 1. Anand for the way it established the crude meaning of life and its underlying philosophies . 2. Silsila for its poetic connectivity and e...

SAHIR LUDHIYANAVI : a diary entry to this birthday boy

I should pay my heartiest tribute to two versatile and authentic element of society that introduced Sahir's literature to me. The first must be Amrita Pritam , as she narrates her romantic realism with Sahir Ludhiyanavi in her autobiography 'revenue stamp' still lying on the tidy corner of my study table.She narrates her honest desire for Sahir when  her son questions one day whether he was Sahir's son.She further mentions how she would collect the cigarette butts discarded by Sahir,relight them and smoke the aura and touch of this poet. As she writes There was a grief I smoked in silence, like a cigarette only a few poems fell out of the ash I flicked from it (Translated by Jennifer Barber and Irfan Malik). And the second element that widely introduced me to this sayar is my earnest love for literal cinema.By literal cinema I exactly mean everything taking from Guru Dutt's pyasa to Yash chopra's silsila and kabhi kabhi  .Sahir is spread like aroma of roma...

ये क्या जगह है दोस्तों

ये क्या जगह है दोस्तों  ये कैसा कैसा करार है ? चंद लफ्ज़ ,चंद लम्हे  लिये   जो कागजात जी रहे है ; लबों पे हसीं ,आँखों में नमी लिये जो ख़यालात जी रहे हैं ; इनके सिवा हैं और कौन  जो संग चलने को तैयार है ? ये क्या जगह है दोस्तों  ये कैसा कैसा करार है ? ये किस जमीं पे लेकर आ गयी है जिंदगी ? ना ख्वाइश है ,ना फरमाइश है ; ना मंजिलों की पैमाइश है ; और ये दौड़ने की जो आदत है , नींद की तरह सवार है ; ये क्या जगह है दोस्तों  ये कैसा कैसा करार है ?