बम्बई गया था, अपनी पुरानी जनता से मिलना जुलना हुआ | थोड़ी जिंदगी की तलाश हुई, थोड़ा प्रेम का भी तलाश हुआ | वर्क, लाइफ और वर्क इस लाइफ पे भी बातें हुई | कॉर्पोरेट की चार दीवारी में बंद कुछ सपने भी खुले, कुछ अपने भी खुले | फ्लाइट में बेकार सी ३०० रुपये वाली मैगी खाते खाते मैंने सफर का लेखा जोखा एक टिश्यू पेपर पे लिखा | इस कविता में जितना मेरा है, उतना ही शायद आपका भी, पढ़िए | वक़्त ही वक़्त चल रहे हैं साथ मेरे ख्वाब ही ख्वाब पल रहे हैं साथ मेरे | मैं एक ख्वाब से दूसरे ख्वाब को झाँकता मैं ख्वाब दर ख्वाब को अपने तराजू आंकता | कितना सरल है; ख़्वाबों के अट्टालिकाओं को बनाना | कितना मुश्किल है ; ख़्वाबों के अट्टालिकाओं पर यथार्थ का पताका लहराना || मैं एक ख्वाब की किताब को बंद करके सो जाऊँ भी तो नींद मुझे आएगी क्या ? गर नींद आ भी गयी तो कोई ख्वाब मुझे सताएगा क्या ? मैं ख़्वाबों को लेकर सोता हूँ मैं ख़्वाबों को लेकर जगता हूँ, मैं अपने दाएं कंधे पे ख्वाब लटकाये चलता हूँ | मैं ख़्वाबों का शायर हूँ मुझे मुट्ठी में बंद कर पाओगे क्या ? ये तो सवाल जीने मारने का है जो मैं तेरे दरीच...
|शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर |