Skip to main content

Posts

Showing posts from December, 2016

ख्वाब और हुकूमत

बम्बई गया था, अपनी पुरानी जनता से मिलना जुलना हुआ | थोड़ी जिंदगी की तलाश हुई, थोड़ा प्रेम का  भी तलाश हुआ | वर्क, लाइफ और वर्क इस लाइफ पे भी बातें हुई | कॉर्पोरेट की चार दीवारी में बंद कुछ सपने भी खुले, कुछ अपने भी खुले | फ्लाइट में बेकार सी ३०० रुपये वाली मैगी खाते खाते मैंने सफर का लेखा जोखा एक टिश्यू पेपर पे लिखा | इस कविता में जितना मेरा है, उतना ही शायद आपका भी, पढ़िए | वक़्त ही वक़्त चल रहे हैं साथ मेरे ख्वाब ही ख्वाब पल रहे हैं साथ मेरे | मैं एक ख्वाब से दूसरे ख्वाब को झाँकता मैं ख्वाब दर ख्वाब को अपने तराजू आंकता | कितना सरल है; ख़्वाबों के अट्टालिकाओं को बनाना | कितना मुश्किल है ; ख़्वाबों के अट्टालिकाओं पर यथार्थ का पताका लहराना || मैं एक ख्वाब की किताब को बंद करके सो जाऊँ भी तो नींद मुझे आएगी क्या ? गर नींद आ भी गयी तो कोई ख्वाब मुझे सताएगा क्या ? मैं ख़्वाबों को लेकर सोता हूँ मैं ख़्वाबों को लेकर जगता हूँ, मैं अपने दाएं कंधे पे ख्वाब लटकाये चलता हूँ | मैं ख़्वाबों का शायर हूँ मुझे मुट्ठी में बंद कर पाओगे क्या ? ये तो सवाल जीने मारने का है जो मैं तेरे दरीच...

मेहबूब

मैं समय का एक कलंदर एक मदारी मेरे अंदर पीछे रेत का सफर और आगे एक समंदर अपने रंगों में डूब खोया इत्ती सी मेरी चेतना है | पर मेरे मेहबूब तेरा रूठ जाना कब मना है || हम तेरे माकूल कारिंदे चलते फिरते मुर्दे जिन्दे डर है उच्छवास मेरा क्रंदन मेरी आसना है | पर मेरे मेहबूब तेरा मुस्कराना कब मना है || हाथ की लकीर लेकर हम चले थे एक सफर में ख़्वाबों के फ़कीर बन कर तुम मिले थे एक शहर में खौफ को मुट्ठी में बाँधे अब बस सरपट दौड़ना है | पर मेरे मेहबूब तेरा लड़खड़ाना कब मना है || हैं मुकम्मल दूरियां शहर शहर के बीच में हैं मुकम्मल खामोशियाँ पहर पहर के बीच में हमारे तुम्हारे बीच में एक उम्र भर का सामना है | पर मेरे मेहबूब तेरा आँखें बिछाना कब मना है ||

हम आपकी आरजू को ना करें कैसे ||

रुह- ए- आबरू खून-ए-जां बयां करें कैसे हम आपकी आरजू को ना करें कैसे || हर एक शक्ल शहर का पानी पानी है हम एक माचिस जला कर धुआं करें कैसे || मिट्टी सारी खोद कर ईमारत खड़े कर दिए हम इन जमीनों को गुलिस्तां करें कैसे || बेखुदी का रिश्ता है मेरी और वफाई का यूँ ही एक बार फिर से वफ़ा करें कैसे ||