कभी कभी यूँ भी लगता है
सारे ख्वाब तो लिख दिए गए हैं कहीं न कहीं |
जज्बातों के तमाम किस्से
दर्ज हैं कहीं न कहीं |
वो सारे देशी शोर शराबे
और उनसे टूटने वाली शहरी नींदें ;
हलके से बहस पे
शीशों की माफिक बिखरते रिश्ते
दूधिये चाँद के मत्थे पे
स्याह रात की दो चार बिंदी
कब कुछ तो बयां है कहीं का कहीं |
रह क्या गए हैं ?
कुछ जर्द सादे कागजों के
अपने अपने इंटरप्रीटेशन
अब बचा क्या है लिखने को ?
बस इतना की :
चाय फीकी पड़ गयी है
कॉफ़ी में अरोमा रही नहीं
आजकल इस बेदर्दी सर्दी को
धूप का सहारा मिलता नहीं ||
सारे ख्वाब तो लिख दिए गए हैं कहीं न कहीं |
जज्बातों के तमाम किस्से
दर्ज हैं कहीं न कहीं |
वो सारे देशी शोर शराबे
और उनसे टूटने वाली शहरी नींदें ;
हलके से बहस पे
शीशों की माफिक बिखरते रिश्ते
दूधिये चाँद के मत्थे पे
स्याह रात की दो चार बिंदी
कब कुछ तो बयां है कहीं का कहीं |
रह क्या गए हैं ?
कुछ जर्द सादे कागजों के
अपने अपने इंटरप्रीटेशन
अब बचा क्या है लिखने को ?
बस इतना की :
चाय फीकी पड़ गयी है
कॉफ़ी में अरोमा रही नहीं
आजकल इस बेदर्दी सर्दी को
धूप का सहारा मिलता नहीं ||
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