अच्छा नहीं लगता
सादे कच्चे रंग से लिपे पुते ये सारे दरो दीवारें ;
गुमनाम सा बंद कमरा ;
और दो चार पन्नों में सिमटी जिंदगी |
अच्छी नहीं लगती
ये बदहवास खामोशियाँ ;
उनकी अजिमोशान चुप्पी
जिनकी सोहबत में काट दी हमने सारे ऑर्थो डॉक्स धागे |
अच्छा नहीं लगता
उनका नज़रों के किनारे से बस यूँ ही निकल जाना
जिनके रोजमर्रा पे लिख दी हमने दो चार किताबें |
अच्छा नहीं लगता
यूँ अचानक से बड़ा हो जाना
जो हमारी किलकारियों पे अब कोई लाकर नहीं देता खिलौना ||
सादे कच्चे रंग से लिपे पुते ये सारे दरो दीवारें ;
गुमनाम सा बंद कमरा ;
और दो चार पन्नों में सिमटी जिंदगी |
अच्छी नहीं लगती
ये बदहवास खामोशियाँ ;
उनकी अजिमोशान चुप्पी
जिनकी सोहबत में काट दी हमने सारे ऑर्थो डॉक्स धागे |
अच्छा नहीं लगता
उनका नज़रों के किनारे से बस यूँ ही निकल जाना
जिनके रोजमर्रा पे लिख दी हमने दो चार किताबें |
अच्छा नहीं लगता
यूँ अचानक से बड़ा हो जाना
जो हमारी किलकारियों पे अब कोई लाकर नहीं देता खिलौना ||
jab man ukcha jata hai roj ke monotonous life se tb tmhare blog ki yaad aati hai.. achha lgta hai yahan.
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