मैं चाहता था मैं बनूँ सामानांतर सी रेखा, साथ साथ चलती पटरी | मैं कब गुजर बैठ तुमसे तुम कब गुजर बैठी हमसे और फिर निकल गए बड़ी दूर, पारस्परिक रेखाओं की तरह पता ही ना चला | मैं चाहता था मैं बनूँ एक हसीन ख्वाब; तुम्हारे उधड़े दिनों में काम आये जिनकी यादें | मैं कब बन गया आधी रात का वो एक स्वप्न और निगल बैठ तुम्हारी नींद पता ही न चला | मैं चाहता था मैं बनूँ हवा का झोंका जो उड़ाए तुम्हारी जुल्फों को बेपनाह जिसके ठीक पीछे नज़र आये स्याह रात में चमकते आकांक्षाओं के साइनबोर्ड | मैं कब बन गया तूफ़ान और झकझोर बैठा तुम्हारी छाती रौंद दिए अपने पैरों के तले तुम्हारे आँसू पता ही ना चला |
|शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर |