तू किसी रेल सी गुजरती है मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ | _____ दुष्यंत कुमार | ********************************************************************** जब ट्रेन आती है , तुम्हारी याद आती है; एक स्क्रीच वाली ध्वनि के साथ तुम्हारी याद आती है | तुम दुष्यंत कुमार की गजल जैसी हो रेल सी गुजरती हो मैं विद्रोही का पत्थर देवता जैसा नज़र आता हूँ देवता नहीं हूँ | एक टूटे हुए पुल का अवशेष मात्र हूँ जिसे किसी ने ठोकर मार कर सड़क किनारे पहुँचा दिया और फिर किसी ने फूल बाँध कर टीका चढ़ा दिया | मैं भी दुष्यंत कुमार की गजल जैसा हुआ करता था | तुम रेल सी गुजरती थी मैं पुल सा थरथराता था तुम गुजरती थी, मैं थरथराता था तुम गुजरत थी, मैं थरथराता था | और अब मैं टूट के गिर गया हूँ "ममता" के फ्लाईओवर की तरह बिखर गया हूँ | लेकिन तुम रेल हो तुम गुजरती रहना नये पुल का तलाश करना और गुजरती रहना | क्यूंकि तुम जिंदगी को जोड़ती हो क्यूंकि तुम लम्हों को खुबसूरत बनाती हो क्यूंकि तुम हर यायावर के सफ़र की साथी हो | मैं भी कोशिश करूँगा की इस बार पढ़े लिखे अभियंताओं के हाथ लगू...
|शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर |