परिंदों का हम सा कोई खानदान नहीं रहता परिंदे बंटवारे पे उतर आते तो आसमान नहीं रहता || मैंने जिस नज़रिये से देखा था खबर अखबार में ऐसा कोई बयान नहीं रहता || वो जो रहते हैं, अँधेरे में चराग की तरह शहर में उनका देर तक निशान नहीं रहता || जिस अरमा से पैदा हुए, खेले कूदे बड़े हुए उम्र आने तलक कोई अरमान नहीं रहता || जिससे जुबानी मिली, दिलों में उतर आये मेरे घरौंदे में कोई मेहमान नहीं रहता || वो जिसकी आरजू में , तेरी आरजू है जानां बाज़ार में ऐसा कोई सामान नहीं रहता || हम जब भी रोते हैं , शहर डूब जाता है हमारे जख्मों से कोई अनजान नहीं रहता ||
|शौक-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर |