थोड़ा इश्क़ , थोड़ी बेकरारी इधर भी है ,और उधर भी
सुबह से सांस ऐसे खींच रही है जैसे
सहतूत से रेशम खींच रहा हो |
दिन और रात ऐसे चढ़ रहा है जैसे
सूरज की लाश पे कोई एहसान का दुपट्टा चढ़ा रहा हो |
आखिर कब तक बेहोशी का नाटक करता सूरज ||
आप और हम किसी सतरंज की बिसात से कम नहीं
थोड़ा इश्क़ , थोड़ी बेकरारी इधर भी है ,और उधर भी
खैर
काफी कुछ दावं पे लगा के
थोड़ा समझौता आपने भी किया है ;
थोड़ा हमने भी |
कुछ तो नहीं है ;
फिर इतना कुछ क्यों ? पता नहीं ||
सुबह से सांस ऐसे खींच रही है जैसे
सहतूत से रेशम खींच रहा हो |
दिन और रात ऐसे चढ़ रहा है जैसे
सूरज की लाश पे कोई एहसान का दुपट्टा चढ़ा रहा हो |
आखिर कब तक बेहोशी का नाटक करता सूरज ||
थोड़ा इश्क़ , थोड़ी बेकरारी इधर भी है ,और उधर भी
खैर
काफी कुछ दावं पे लगा के
थोड़ा समझौता आपने भी किया है ;
थोड़ा हमने भी |
कुछ तो नहीं है ;
फिर इतना कुछ क्यों ? पता नहीं ||
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