कभी यूँ भी तो हो की आपके बाँहों में शाम हो , आपकी महफ़िल में मेरा नाम हो और आपके गुलशन में हमारा गुलफाम हो | कभी यूँ भी तो हो कोई उम्मीद से हमें मुहब्बत सिखाये , इश्क-ए-महफ़िल में हमें सिरकत सिखाये , और करीने से उल्फतों के नजाकत सिखाये | कभी यूँ भी तो हो हम बाहों में रहे तुम्हारे , कब तक जियेंगे बस सपनो के सहारे ; हम बंद आँखों से देखते रहे , हकीकत के चश्मदीद गवाह | कोई चूमे हमें बेपनाह हम खोये रहे लापरवाह , और इन् दूरियों से दूर कोई मकाँ बनाएं एक गीत लिखें : और अन कहे लफ़्ज़ों का कारवां सजाएं || कभी यूँ भी तो हो हम इत्तेफाके आपसे मिलें | साजिश के तहत तो सब मिलते हैं || * dedicated to and with inputs from Grim .